सोमवार, 8 अप्रैल 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू कोटि अचारिन एक विचारी, तऊ न सरभर होइ ।*
*आचारी सब जग भर्या, विचारी विरला कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ @Anand Sarita

विवेकानंद ने लिखा कि जब मैंने रामकृष्ण के पास जाना शुरू किया, तो मैं पाप—पुण्य की भावनाओं से भरा हुआ था। घर से जाते और रामकृष्ण के दक्षिणेश्वर तक पहुंचने के बीच वेश्याओं का मुहल्ला पडता था। तो मैं वहां से नहीं निकलता था, करीब के रास्ते से। मैं कोई डेढ मील का चक्कर लगाकर जाता था कि वेश्याओं के मुहल्ले से मैं कैसे निकलूं ! मैं हूं संन्यासी, वेश्याओं के मुहल्ले से मैं कैसे निकलूं?
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फिर हिंदुस्तान से बाहर जाते थे विवेकानंद, तो राजस्थान में वे खेतडी महाराज के यहां रुके। तो वह राजा तो राजा था; विदा कर रहा था; विवेकानंद अमरीका जाते थे; तो उसने एक वेश्या को बुला लिया था विदा—समारोह में नाचने के लिए ! राजा तो राजा। बुद्धि ऐसी थी कि जब विदा—समारोह हो रहा है, तो कुछ नाच—गाना होना चाहिए। यह फिक्र ही नहीं कि संन्यासी है। और उसने एक बहुत बडी वेश्या को काशी से बुलवा लिया। विवेकानंद को पता चला, तो घबडा गए। उन्होंने कहा कि 'मैं संन्यासी और मेरी विदा में वेश्या नाचेगी ! कैसा मामला है?' ठीक ऐन वक्त पर राजा बुलाने आया। विवेकानंद ने कहा, 'मैं नहीं जाता। मैं हूं संन्यासी। '
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वेश्या को पता चल गया। विवेकानंद, एक संन्यासी, भारत के बाहर जाता है, उसके स्वागत में जा रही हूं। वह बेचारी बड़े अदभुत भजन इकट्ठे करके लायी थी। ऐसा भजन इकट्ठा करके लायी थी कि संन्यासी का स्वागत हो, उसके योग्य कुछ हो। वह बड़े पवित्र भाव से भर कर आयी थी। फिर उसको पता चला, विवेकानंद नहीं आये। राजा ने कहा, 'नहीं आता संन्यासी, तो समारोह तो होने ही दो। वेश्या आयी है, तो वह नाचे।' 
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तो उसने नरसी मेहता का एक गीत गाया। उसने गाया : 'एक लोहा पूजा में राखत...।' यह भजन गाया। उसने गीत गाया कि 'एक तो लोहा हम रखते हैं भगवान के घर में और एक रहता है कसाई के घर। लेकिन अगर पारस पत्थर के पास ले जाओ, तो वह यह न कहेगा कि यह कसाई का लोहा है, इसको हम सोना नहीं कर सकते ! उसको तो कोई भी लोहा छुये, तो सोना हो जायेगा।' तो संन्यासी को क्या भेद है कि कौन वेश्या है और कौन वेश्या नहीं है? उसके पास तो कोई भी आये, सोना हो जाना चाहिए।

विवेकानंद पास के ही छोटे से झोपड़े में बैठे थे। बडा प्राण घबडाया और गीत सुना तो बडा बोध हुआ। रोने लगे। लेकिन फिर भी हिम्मत नहीं पड़ी जाने की उसके पास। अमरीका से लौटकर उन्होंने कहा, 'अब मैं सोचता हूं कि कैसी बच्चों जैसी बात है ! अगर मुझे वेश्या के घर भी सोने को मिल जाये, तो वैसे ही आनंद से सोऊंगा, जैसे मंदिर में सोता हूं। आज मैं जानता हूं वह मेरी मूर्खता थी और मेरी ही कमजोरी थी। वेश्या से कोई वास्ता नहीं था उस बात का। वह मेरी ही कमजोरी थी, मेरा ही भय था, डर था वही मुझे परेशान किये था। '

ओशो ~ चल हंंसा उस देश-(ध्यान-साधना)-प्रवचन-07

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