#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*कारज को सीझै नहीं, मीठा बोलै बीर ।*
*दादू साचे शब्द बिन, कटै न तन की पीर ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*शब्द परीक्षा का अंग ७३*
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पिंड प्राण१ पुहमी२ पवै३, तहाँ सप्त ये खानि ।
रज्जब कंचन लोह लग४, शब्द सु वित्त५ हि जानि ॥५॥
जैसे पृथ्वी२ के पर्वतों३ में सुवर्ण, चांदी, ताम्र, वंग, नाग अभ्रक, लोहा तक४ की सप्त धातुओं की खानियाँ होती है, वैसे ही स्थूल शरीर रूप पृथ्वी के सूक्ष्म१-शरीर रूप पर्वत में नाना शब्द धन५ होता है ऐसा जानना चाहिये ।
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एक शब्द राजेन्द्र मय, एक प्रजा उनहार१ ।
बैनहुं में ब्यौरा२ बहुत, परखै परखन हार ॥६॥
एक शब्द राजा रूप होता है और एक प्रजा के समान१ होता है, इस प्रकार वचनों में बहुत भेद२ रहता है परीक्षक ही उनकी परीक्षा कर सकता है, अन्य नहीं ।
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रज्जब काया कुंभ को, परखै प्राण प्रवीन ।
सारे१ का सारा शबद, फूटा वाणी२ हीन ॥७॥
शरीर और घड़े की चतुर प्राणी ही परीक्षा करता है, वैसे साबुत१ घड़े का और फुटे घड़े का शब्द भिन्न भिन्न होता है, वैसे ही श्रेष्ठ१ प्राणी की काया से श्रेष्ठ शब्द और हीन प्राणी की काया से हीन शब्द२ प्रगट होता है ।
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वेत्ता१ बीज२ समान है, वाणी बोध प्रकाश ।
रज्जब बोलि बिगास३ तों, श्रवण नैन तम नाश ॥८॥
ज्ञानी१ बिजली२ के समान है, बिजली में प्रकाश है, वैसे ही ज्ञानी की वाणी में ज्ञान-प्रकाश है बिजली के प्रकाश से नेत्रों का अंधेरा दूर होता है, वैसे ही ज्ञानी की वाणी प्रगट३ होते ही श्रवणों द्वारा जाकर अपने ज्ञान-प्रकाश द्वारा हृदय के अज्ञान को नाश करती है ।
(क्रमशः)
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