बुधवार, 1 मई 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू विषै सुख मांहि खेलतां, काल पहुँच्या आइ ।*
*उपजै विनशै देखतां, यहु जग यों ही जाइ ॥*
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साभार ~ Rakhee Khanna

धरती की उम्र चार अरब वर्ष है, अब तक पृथ्वी चार अरब वर्ष से जिंदा है। सूरज जमीन से हजारों गुना पुराना है। और हमारा सूरज बहुत जवान है; बूढ़े सूरज हैं। हमारी जमीन तो बहुत नई है, नई—नवेली बहू समझो; इसलिए इतनी हरी—भरी है। बहुत—सी पृथ्वियां हैं दुनिया में जो उजड़ गईं, जहां अब सिर्फ राख ही राख रह गई है—न वृक्ष उगते, न मेघ घिरते, न कोयल कूकती, न मोर नाचते।
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अनंत पृथ्वियां हैं, वैज्ञानिक कहते हैं, जो सूख गई हैं। कभी वहां भी जीवन था। कभी यह पृथ्वी भी सूख जाएगी। हर चीज पैदा होती है, जवान होती है, बूढ़ी होती है, मरती है। यह सूरज भी चुक जाएगा; यह सूरज भी रोज चुक रहा है, क्योंकि इसकी ऊर्जा खत्म होती जा रही है। इससे किरणें रोज निकल रही हैं और समाप्त हो रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ हजार वर्षों में यह सूरज ठंडा पड़ जाएगा। इस सूरज के ठंडे पड़ते ही पृथ्वी भी ठंडी हो जाएगी, क्योंकि उसी से तो इसको रोशनी मिलती है, प्राण मिलते, ताप मिलता, ऊर्जा मिलती, ऊष्मा मिलती; उसी से तो उत्तप्त होकर जीवन चलता है, फूल खिलते हैं, वृक्ष हरे होते हैं, हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं।
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हमारा तो सत्तर साल का जीवन है, इस पृथ्वी का समझो कि सत्तर अरब वर्ष का होगा। सूरज का और समझो सात सौ अरब वर्ष का होगा। और महासूर्य हैं, जिनका और आगे, आगे होगा। आदमी की बिसात क्या है? इस सत्तर साल के जीवन में मगर हम कितने अकड़ लेते हैं !
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लड़ लेते हैं, झगड़ लेते हैं, गाली—गलौज कर लेते हैं, दोस्ती—दुश्मनी कर लेते हैं, अपना—पराया कर लेते हैं, मैं-तू की बड़ी झंझटें खड़ी कर देते हैं। अदालतों में मुकदमेबाजी हो जाती है, सिर खुल जाते हैं।
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अगर हम मृत्यु को ठीक से पहचान लें, तो इस पृथ्वी पर वैर का कारण न रह जाए। जहां से चले जाना है, वहां वैर क्या करना ? जहां से चले जाना है, वहां दो घड़ी का प्रेम ही कर लें। जहां से विदा ही हो जाना है, वहां गीत क्यों न गा लें, गाली क्यों बकें ? जिनसे छूट ही जाना होगा सदा को, उनके और अपने बीच दुर्भाव क्यों पैदा करें ? कांटे क्यों बोएं ? थोड़े फूल उगा लें, थोड़ा उत्सव मना लें, थोड़े दीए जला लें ! इसी को मैं धर्म कहता हूं।
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जिस व्यक्ति के जीवन में यह स्मरण आ जाता है कि मृत्यु सब छीन ही लेगी; यह दो घड़ी का जीवन, इसको उत्सव में क्यों न रूपांतरित करें ! इस दो घड़ी के जीवन को प्रार्थना क्यों न बनाएं ! पूजन क्यों न बनाएं ! झुक क्यों न जाएं—कृतज्ञता में, धन्यवाद में, आभार में ! नाचें क्यों न, एक—दूसरे के गले में बांहें क्यों न डाल लें ! मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। यह जो क्षण—भर मिला है हमें, इस क्षण—भर को हम सुगंधित क्यों न करें ! इसको हम धूप के धुएं की भांति क्यों पवित्र न करें, कि यह उठे आकाश की तरफ, प्रभु की गूंज बने !

💠 कहै वाजिद पुकार, प्रवचन-७, ओशो 💠

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