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॥ श्री दादूदयालवे नमः ॥
स्वामी सुन्दरदासजी महाराज कृत - *सुन्दर पदावली*
साभार ~ महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य ~ श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*बिभचारनि हौं होती नांहीं,*
*लै पतिब्रतहि रही मन मांहीं ॥२॥*
*तुम तौ बहुत त्रियन संग कीनौ,*
*मैं तौ एक तुमहिं चित दीनौ ॥३॥*
*सुन्दरदास भई गति ऐसी,*
*चातक मीन चकोर हि जैसी ॥४॥*
मैं व्यभिचारिणी तो हूँ नहीं कि अपनी वासना की तृप्ति के लिये जिसतिस के पास जाती आती फिरूँ ! मैंने तो पूर्णतः पतिव्रत धर्म का व्रत ले रखा है ॥२॥
आपने बहुत सी स्त्रियों का साथ किया होगा, परन्तु मैं तो एक आपके ही नाम पर पतिव्रत धर्म का पालन कर रही हूँ ॥३॥
महात्मा सुन्दरदासजी कहते हैं –आपके प्रेम में मेरी चातक, मीन एवं चकोर जैसी स्थिति हो गयी है कि जैसे चातक मेघ के जल बिना, मीन जल के बिना या चकोर चन्द्रदर्शन बिना नहीं रह पाते ॥४॥
(क्रमशः)
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