गुरुवार, 2 मई 2019

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🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू दूर कहैं ते दूर हैं, राम रह्या भरपूर ।*
*नैनहुं बिन सूझै नहीं, तातैं रवि कत दूर ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

*'उसको आत्मा का दर्शन कहा है, जो दृश्य का अवलंबन करता है? धीर पुरुष दृश्य को नहीं देखते हैं और अविनाशी आत्मा को देखते है।'* इस एक सूत्र में इस भारत देश के समस्त दर्शन का सार है। दर्शन शब्द का भी यही अर्थ है। यह सूत्र दर्शन की व्याख्या है।
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दर्शन का अर्थ सोच—विचार नहीं होता। दर्शन का वैसा अर्थ नहीं है, जैसा फिलासफी का। दर्शन का अर्थ है : उसे देख लेना जो सब देख रहा है। दृश्य को देखना दर्शन नहीं है, द्रष्टा को देख लेना दर्शन है।
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मनुष्य को दो विभागों में बांट सकते हैं। एक तो वे, जो दृश्य में उलझे हैं। कहो उन्हें, अधार्मिक। फिर चाहे वे परमात्मा की मूर्ति सामने रख कर उस मूर्ति में ही क्यों न मोहित हो रहे हों, दृश्य में ही उलझे हैं। चाहे आकाश में परमात्मा की धारणा कर रसलीन हो रहे हों तो भी दृश्य में ही उलझे हैं। परमात्मा भी उनके लिए एक दृश्य मात्र है।
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दूसरा वर्ग है, जो द्रष्टा की खोज करता है। कोई किसी को देख रहा है, तब देखा जाने वाला दृश्य है। जो भीतर से सब को देख रहा है, द्रष्टा है। जो भीतर छिपा देख रहा है, आंख की खिड़कियों से, कान की खिड़कियों से जो सुन रहा है, देख रहा है, वह कौन है? उसकी तलाश में जो निकल जाता है वही धार्मिक है।
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परमात्मा को अगर दृश्य की भांति सोचा तो मंदिर—मस्जिद बनाएंगे, गुरुद्वारे बनाएंगे, पूजा करेंगे, प्रार्थना करेंगे, लेकिन वास्तविक धर्म से संबंध न हो पाएगा। वास्तविक धर्म की तो शुरुआत ही तब होती है जब द्रष्टा की खोज में निकल पड़े; पूछने लगे मौलिक प्रश्न कि मैं कौन हूं ! यह जानने वाला कौन है? जानना है, जानने वाले को; देखना है, देखने वाले को। पकड़ना है इस मूल को, इस स्रोत को। इसके पकड़ते ही सब पकड़ में आ जाता है।
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उपनिषद कहते हैं, जिसने जानने वाले को जान लिया उसने सब जान लिया। भगवान महावीर कहते हैं, एक को जान लेने से सब जान लिया जाता है। और वह एक प्रत्येक के भीतर बैठा है।
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परमात्मा को दृश्य की तरह सोचना बंद करें। परमात्मा को द्रष्टा की तरह देखना शुरू करें। इसीलिए तो कहते हैं, आत्मा ही परमात्मा है। पहचान ली तो परमात्मा हो गई, न पहचानी तो आत्मा बनी रही। अगर अपने ही भीतर गहरे उतर जाएं और अपनी ही गहराई का आखिरी केंद्र छू लें तो कहीं खोजने नहीं जाना, तब स्वयं ही मंदिर हैं; परमात्मा भीतर विराजमान है।
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लेकिन यात्रा की दिशा बदलनी पड़ेगी। दृश्य है बाहर, द्रष्टा है भीतर। दृश्य है पर, द्रष्टा है स्व। दृश्य को देखना हो तो आंख खोल कर देखना पड़ता है। द्रष्टा को देखना हो तो आंख बंद कर लेनी पड़ती है। दृश्य को देखना हो तो विचार की तरंगें सहयोगी होती हैं। और द्रष्टा को देखना हो तो निर्विचार, अकंप दशा चाहिए। दृश्य को देखना हो तो मन उपाय है, और द्रष्टा को देखना हो तो ध्यान।

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