शनिवार, 13 जुलाई 2019

= १९५ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जोगिया बैरागी बाबा,*
*रहै अकेला उनमनि लागा ॥*
*आतम जोगी धीरज कंथा,*
*निश्चल आसण आगम पंथा ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. २३०)
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साभार ~ Nishi Dureja
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ग़रज़ कि होश में आना पड़ा मुहब्बत को
हमीं को देख लें दीवाने तेरे दूर न जाएं

हुस्न से कब तक परदा करते
इश्क से कब तक परदा होता

सत्रह साल की उम्र थी रमण की। परिवार में किसी की मृत्यु हो गयी। रमण ने मृत्यु को घटते देखा। अभी—अभी था यह आदमी, अभी—अभी नहीं हो गया !
कारौ पीरौ काहू द्वार जातौ हू न पेखिए।
और न देखा काला न पीला। न किसी को देखा आते न किसी को देखा जाते। सब वैसा ही का वैसा। नाक, मुंह, आंख, कान सब वैसे, हाथ—पैर सब वैसे। एक क्षण पहले यह था और एक क्षण बाद न रहा। हुआ क्या ! कौन चला गया ! कहां चला गया ! कहां से आया था !
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रमण को एक बात सूझी। बच्चों को अकसर बातें सूझ जाती हैं। घर के लोग तो रोने—धोने में लगे थे, वे बगल के कमरे में चले गए और जमीन पर लेट गए, जैसे वह मुर्दा आदमी लेटा था वैसे लेट गए। हाथ—पैर वैसे ही कर लिए ढीले, जैसे मुर्दे ने किए थे। आंखे बंद कर लीं। 
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एक प्रयोग किया मृत्यु का कि मैं देखूं कि मेरे भीतर क्या होता है; अगर मैं ऐसे ही मर जाऊं तो कोई आता—जाता है या नहीं; कोई बचता है कि नहीं भीतर? शरीर को शिथिल छोड़ दिया। सरल भाव का बच्चा रहा होगा—अति सरल भाव का, कि जल्दी ही लगा कि मौत घट रही है। हाथ—पैर सब सूख गए। 
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थोड़ी देर विचार घूमते रहे, फिर विचार भी समाप्त हो गए। थोड़ी देर बाहर की आवाजें और रोना—धोना सुनाई पड़ता रहा, फिर पता नहीं वे भी सब आवाजें कहीं दूर....... निकल गईं। कान जैसे बंद हो गए। थोड़ी देर श्वास चलती मालूम पड़ती रही, फिर उससे भी दूरी हो गई। मृत्यु जैसे घटी। 
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और जब घंटे—भर बाद रमण ने आंखें खोलीं तो वे दूसरे ही व्यक्ति थे। चमत्कार हो गया। देख ही लिया उन्होंने भीतर अपने कि "जो है", उसकी कोई मृत्यु नहीं। जाकर घर के लोगों को कहा : व्यर्थ रो रहे हो, धो रहे हो। कोई कहीं गया नहीं, कोई कहीं जाता नहीं।—
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और उसी दिन उन्होंने घर छोड़ दिया, चल पड़े जंगल की तरफ। अब इस संसार में कुछ अर्थ न रहा। सारे अर्थों का अर्थ तो भीतर मिल गया। संपदा तो मिल गई, अब क्या तलाश करनी है? इस संसार में तो हम संपदा की ही तलाश करते रहते हैं। जब मिल गयी संपदा, धनी हो गए, तो अब यहां क्या करना है? चल पड़े। और ऐसा रस लगा, यह मरने की कला में ऐसा रस लगा कि लोग कहते हैं कि जहां रमण बैठ जाते थे, दिनों बैठे रहते थे। आंख बंद कर ली, शरीर को मुर्दा कर लिया और बैठ हैं और पी रहे रस !
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मालूम नहीं तुझको अंदाज ही पीने के दिन बीत जाते। न भोजन की फिक्र है, न प्यास का पता है। लेकिन एक आभा प्रकट होने लगी, एक तेजोमंडल आविर्भूत होने लगा। चारों तरफ एक सुगंध फैलने लगी। लोग सेवा करने लगे। लोग भोजन ले आते, हाथ—पैर दबाते कि लौट आओ, भोजन कर लो। कोई पानी ले आता, कोई स्नान करवा देता; नहीं तो वे बैठे रहते बिना ही स्नान के। मक्खियों के झुंड के झुंड उन पर बैठे रहते और वे मस्त हैं, वे मदहोश हैं। 
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और लोग पूछते : तुम करते क्या हो? तो वे कहते कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं। करने की कोई जरूरत ही नहीं। फिर यही उनका जिंदगी—भर संदेश रहा जो भी उनके पास जाता, पूछता : हम क्या करें परमात्मा को पाने को? तो वे कहते= करने की कोई जरूरत नहीं, बस बैठ रहो। खाली बैठे रहो। खाली बैठे, बैठे, बैठे, बैठे एक दिन ऐसा सुर बंध जाएगा कि जो भीतर है उसकी प्रतीति होने लगेगी। बाहर से मन मुड़ जाएगा, भीतर का अनुभव होने लगेगा !

🌹जय हो🌹

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