गुरुवार, 9 जनवरी 2020

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*काया मांही भय घणा, सब गुण व्यापैं आइ ।*
*दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु* *मन*
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सुनते हैं शुकदेवजी जब जनकजी के गये, तब उन्हें शंका हुई कि जनकजी तो भोगों में फंसे हैं इन्हें ब्रह्मतत्व का क्या पता होगा ? जनकजी समझ गये । जब शुकदेवजी को भोजन कराने लगे तब उन्हें ऐसे स्थान पर बैठाया जहाँ ऊपर एक शिला बंधी थी और उसकी स्थिति ऐसी थी मानों अभी गिरेगी । उसके भय से युक्त शुकदेवजी ने नाना पदार्थ खाये किन्तु एक के भी रस का ज्ञान उन्हें न हुआ । 
फिर एक तेल का कटोरा पूर्ण भरा हुआ हाथ में देकर साथ सिपाही कर दिये और कहा - "यदि एक भी बिन्दु नीचे गिरी तो आपको प्राणान्त दण्ड मिलेगा ।" शुकदेवजी उसे लेकर नगर में फिर आये किन्तु एक बुंद भी नीचे न गिरी । फिर जनक ने उनसे पूछा - "आपने नगर में क्या देखा ?" शुकदेवजी - "कुछ नहीं ।" जनकजी बोले - "जैसे भय से आपको भोजन में रस का तथा पथ के लोगों का कुछ भी पता न चला कारण आपका मन एकाग्र था । ऐसे ही मेरा मन ब्रह्म में एकाग्र है इससे विषय, विषयरूप नहीं भासते ।"
जब मन भय में लीन हो, अपर न भासत भोग ।
शुक मुनि को भासे नहीं, विषय रू पथ के लोग ॥१५॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
### सत्यराम सा ###

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