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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग मारू(मारवा) ७, (गायन समय साँयकाल ६ से ९ रात्रि)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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१५७ - चौताल
आदि काल अंत काल, मध्य काल भाई ।
जन्म काल जरा काल, काल संग सदाई ॥टेक॥
जागत काल सोवत काल, काल झँपै आई ।
काल चलत काल फिरत, कबहूं ले जाई ॥१॥
आवत काल जात काल, काल कठिन खाई ।
लेत काल देत काल, काल ग्रसै धाई ॥२॥
कहत काल सुनत काल, करत काल सगाई ।
काम काल क्रोध काल, काल जाल छाई ॥३॥
काल आगै काल पीछै, काल संग समाई ।
काल रहित राम गहित, दादू ल्यौ लाई ॥४ ॥
हे भाई ! आदि की शिशु अवस्था से अन्त की वृद्धावस्था तक तथा मध्य की युवावस्था में भी अपना प्रमाद रूप काल साथ ही रहता है ।
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इस प्रकार जन्म से जरावस्था तक काल सदा ही संग रहता है । जागते, सोते, चलते, फिरते, कभी भी झपट्टा मार कर ले जाता है ।
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आते - जाते, लेते - देते यह कठौर काल खा जाता है ।
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कहते - सुनते, सँबँध करते भी काल दौड़ कर ग्रस लेता है ।
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काल ही काम - क्रोधादि रूप से जाल के समान सर्वत्र व्याप्त हो रहा है और आगे पीछे संग में रहता है तथा अन्त:करण में समाया हुआ रहता है । अत: काल से बचने के लिए काल रहित राम की शरण ग्रहण करके उसी में अपनी वृत्ति लगाओ ।
(क्रमशः)
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