🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
.
*२. स्मरण का अंग ~ ७३/७६*
.
जीव जीभ वाणी बदन, बिना कंठ नहिं कांम ।
कहि जगजीवन साध सौ, जे चित्त राखै रांम ॥७३॥
संत कहते हैं कि देह में जीव जीभ है व मुख वाणी सदृश है। किन्तु इनका आधार कण्ठ है। कण्ठ बिना ये व्यर्थ हैं अतः संत कहते हैं कि जीव स्मरण करे मुख रुपी वाणी का प्रयोग भी करे पर कण्ठ रुपी आधार को न भूले। जो स्वयं ईश्वर है।
.
जगजीवन कहै अनंत गुन, हरि सुमिरन मंहि होइ ।
द्वादस बाई थंभि धरि६, जे करि जानै कोइ ॥७४॥
संत कहते हैं कि ईश्वर के अंनत गुण हैं जो स्मरण में आ जाते हैं। जीव बारह प्रकार की वायु जो शास्त्रो में वर्णित है के प्रभाव से मुक्त होकर स्मरण करे। वह ही सच्चा स्मरण है।
(६. द्वादस बाई थंभि धरि-हठयोग साधना में बतायी गयी प्राण आदि बारह वायुओं का स्तम्भन{निरोध} कर)
.
हरि सुमिरन मंहि आप हरि, हरि मैं जन का बास ।
नूर समावै नूर मैं, सु कहि जगजीवनदास ॥७५॥
संत कहते है कि हरि स्मरण में आप स्वयं ईश्वर है और ईश्वर में ही जीव का वास है। ज्योति में ज्योति समायी है। ऐसा संत कहते हैं।
.
सांस थंभै तहां सौंज१ सब, सहजै सुन्नि समाइ ।
कहि जगजीवन सुमरि हरि, कोइ जन परसै ताहि ॥७६॥
संत कहते हैं कि जहाँ निश्चल चित रुके वहां ही साधना पूजा है सब सहज हो शून्य में समाया है। जीव स्मरण द्वारा ही उन्हें पा सकते है।
(१. सौंज-साधना या पूजा के सभी साधन{उपाय})
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें