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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२. स्मरण का अंग ~ ६९/७२*
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अलख४ प्राण अबिगत सुमरि, मनहि संजीवनि रांम ।
मनसा हरि हरि सबद मंहि, जगजीवन भजि नांम४॥६९॥
संत कहते हैं प्राण अदृश्य हैं उनके द्वारा अविगत प्रभु को स्मरण करे वह मन स्थित संजीवनी सदृश है, मन में प्रभु महिमा करते हुऐ ईश्वर का स्मरण करें। (४-४. जगजीवन जी महाराज का साधक को उपदेश है कि उसे हरि चिन्तन में अपना मन निरंतर लगाए रखना चाहिये । हरि के एकाग्र ध्यान में लगे हुये ऐसे साधक को हरि के किसी प्यारे नाम का भी स्मरण करते रहना चाहिये)
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अमित सुधारस पीवतां, तृपति न मानैं दास ।
कहि जगजीवन क्रिपा हरि, दिन दिन दूणी५ प्यास ॥७०॥
संत कहते हैं कि अमृत जैसी अपार महिमा से कभी दास तृप्त नहीं होते । संत कहते हैं कि प्रभु कारज में नाम रटने की प्यास दिन दिन द्विगुणित होती रहती है। (५. दूणी-द्विगुण)
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जगजीवन छाया रहै, छाया आवै चीति ।
हरि मंहि पैठे एक हरि, नांम ग्रहै निज नीति ॥७१॥
संत जग जीवन दास जी महाराज कहते हैं कि जो व्यापक है वह ही चित्त में आता है। ईश्वर के नाम में ही ईश्वर है अतः इस विचार से स्मरण करते रहना चाहिए कि स्मरण से हम प्रभु सानिध्य में हैं।
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नांम पुरिष परमातमा, नांम हि आतम रांम ।
कहि जगजीवन रांम हरि, अलख सुमरि सब ठांम ॥७२॥
संत कहते हैं नाम ही परम पुरुष है, वही परमात्मा है। संत कहते हैं जो देखे नहीं जा सकते उन परमात्मा का स्मरण सब स्थान पर करें।
(क्रमशः)
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