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*दादू जानै बूझै जीव सब, गुण औगुण कीजे ।*
*जान बूझ पावक पड़ै, दई दोष न दीजे ॥*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*२९. दिग्विजयी का पराभव*
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निमाई पण्डित के गुण बताने पर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। जैसे किसी शास्त्री पण्डित से कह दें आप थोड़ा-सा व्याकरण भी जानते हैं, जैसे उसे इस वाक्य से कोई विशेष प्रसन्नता न होकर और दुःख ही होगा, उसी प्रकार अपने काव्य को सर्वगुणसम्पन्न समझने वाले दिग्विजयी को इन पाँच गुणों के श्रवण से प्रसन्नता की जगह दुःख ही हुआ। उन्होंने कुछ चिढ़कर कहा- ‘अच्छा, ये तो गुण हो गये, अब तुम बता सकते हो तो इसके दोषों को भी बताओ।’
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यह सुनकर उसी गम्भीर वाणी से निमाई पण्डित कहने लगे- गुणों की भाँति दोष भी इसमें अनेकों निकाले जा सकते हैं, किन्तु पाँच मोटे-मोटे दोष प्रत्यक्ष ही हैं। श्लोक में दो स्थानों पर तो ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दो दोष हैं। तीसरा ‘विरुद्धमति’ दोष है, चैथा ‘भग्नक्रम’ ओर पाँचवाँ ‘पुनरुक्ति’ दोष भी है। इस प्रकार ये पाँच दोष मुख्य हैं, अब इनकी व्याख्या सुनिये।
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(१) ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष उसे कहते हैं जिसमें ‘अनुवाद’ अर्थात परिज्ञात विषय आगे न लिखा जाय। ऐसा करने से अर्थ में दोष आ जाता है। आपके श्लोक का मूल विधेय है। ‘गंगा जी का महत्त्व’ और ‘इदम्’ शब्द अनुवाद है। आपने ‘अनुवाद’ को पहले न कहकर सबसे पहले ‘महत्त्वं गंगायाः’ जो ‘विधेय’ है उसे ही आगे कह दिया, इससे ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष आ गया।
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(२) दूसरा ‘अविमृष्ट-विधेयांश’ दोष ‘द्वितीयश्रीलक्ष्मी’ इस पद में है। यहाँ पर ‘द्वितीयत्व’ ही ‘विधेय’ है, द्वितीय शब्द ही समास में पड़ गया। समास में पड़ जाने से वह मुख्य न रहकर गौण पड़ गया। इससे शब्दार्थ क्षय हो गया अर्थात लक्ष्मी की समता प्रकाश करना ही अर्थ का मुख्य तात्पर्य था, सो द्वितीय शब्द के समास में पड़ जाने से अर्थ ही नाश हो गया।
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(३) तीसरे श्लोक में ‘विरुद्धमति’ दोष है। विरुद्धमति दोष उसे कहते हैं कि कहना तो किसी के लिये चाहते हैं और अर्थ करने पर किसी दूसरे पर घटता है। आपके श्लोक में ‘भवानीभर्तु’ पद आया है, आपका अभिप्राय शंकर जी से है, किन्तु अर्थ लगाने पर महादेव जी का न लगकर किसी दूसरे का ही भास होता है। ‘भवानीभर्ता’ के शब्दार्थ हुए(भवस्य पत्नी भवानी भवान्या भर्ता- भवानीभर्ता) अर्थात शिव जी की पत्नी का पति। इससे पार्वती जी के किसी दूसरे पति का अनुमान किया जा सकता है। जैसे ‘ब्रह्मणपत्नी के स्वामी को दान दो’ इस वाक्य के सुनते ही दूसरे पति का बोध होता है। काव्य में इसे ‘विरुद्धमति’ दोष कहते हैं, यह बड़ा दोष समझा जाता है।
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(४) चौथा ‘पुनरूक्ति’ दोष है। पुनरूक्ति दोष उसे कहते हैं, एक बात को बार-बार कहना- या क्रिया के समाप्त होने पर फिर से उसी बात को दुहराना। आपके श्लोक में ‘विभवति’ क्रिया देकर विषय को समाप्त कर दिया है, फिर भी क्रिया के अन्त में ‘अद्भुतगुणा’ विशेषण दकर ‘पुनरुक्तिदोष’ कर दिया गया है।
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(५) पाँचवाँ ‘भग्नक्रम’ दोष है। भग्नक्रम दोष उसे कहते हैं कि दो या तीन पदों में तो कोई क्रम जारी रहे और एक पद में वह क्रम भग्न हो जाये। आपके श्लोक के प्रथम चरण में पाँच ‘तकार’ तीसरे में पाँच ‘रकार’ और चतुर्थ चरण में चार भकारों का अनुप्रास है किन्तु दूसरा चरण अनुप्रासों से रहित ही है। इससे श्लोक में ‘भग्नक्रम’ दोष आ गया।’
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महामहिम निमाई पण्डित बृहस्पति के समान निर्भीक होकर धारा-प्रवाह गति से बोलते जाते थे। सभी दर्शकों के चेहरे से प्रसन्नता की किरणें निकल रही थीं। दिग्विजयी लज्जा के कारण सिर नीचा किये हुए चुपचाप बैठे थे।
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निमाई पण्डित का एक-एक शब्द उने हृदय में शूल की भाँति चुभता था, उससे वे मन-ही-मन व्यथित होते जाते थे, किन्तु बाहर से ऐसी चेष्टा करते थे, जिससे भीतर की व्यथा प्रकट न हो सके, किन्तु चेहरा तो अन्तःकरण का दर्पण है, उस पर तो अन्तःकरण के भावों का प्रतिबिम्ब पड़ता ही है। निमाई पण्डित के चुप हो जाने पर भी दिग्विजयी नीचा सिर किये हुए चुपचाप ही बैठे रहे, उन्होंने अपने मुख से एक भी शब्द इनके प्रतिवाद में नहीं कहा।
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यह देखकर विद्यार्थी ताली पीटकर हँसने लगे। गुणग्राही निमाई पण्डित ने डाँटकर उन्हें ऐसा करने से निषेध किया। दिग्विजयी को लज्जित और खिन्न देखकर आप नम्रता के साथ कहने लगे- ‘हमने बाल-चापल्य के कारण ये बातें कह दी हैं। आप इनको कुछ बुरा न मानें। हम तो आपके शिष्य तथा पुत्र के समान हैं। अब बहुत रात्रि व्यतीत हो गयी है, आपको भी नित्यकर्म के लिये देर हो रही होगी। हमें भी अपने-अपने घर जाना है।
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अब आप पधारें। कल फिर दर्शन होंगे। आपके काव्य को सुनकर हम सब लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई। रही गुण-दोष की बात, सो सृष्टि की कोई भी वस्तु दोष से खाली नहीं है। गुण-दोषों के सम्मिश्रण से ही तो इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। कालिदास, भवभूति, जयदेव आदि महाकवियों के काव्यों में भी बहुत-से दोष देखे जाते हैं। यह तो कुछ बात नहीं है, दोष ही न हों, तो फिर गुणों के महत्त्व को कौन समझे? अच्छा तो आज्ञा दीजिये’ यह कहकर सबसे पहले निमाई पण्डित ही उठ बैठे।
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इनके उठते ही सभी छात्र भी एक साथ ही उठ खडे़ हुए। सर्वस्व गँवाये हुए व्यापारी की भाँति निराशा के भाव से दिग्विजयी भी उठ खडे़ हुए और धीरे-धीरे उदास-मन से अपने डेरे की ओर चले गये। इधर निमाई पण्डित नित्य की भाँति हँसते-खेलते और चौकड़ी लगाते शिष्यों के साथ अपने स्थान को चले गये।
(क्रमशः)
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