मंगलवार, 3 मार्च 2020

*शक्ति शिव शोध का अंग १०८*(५/८)* =

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*दादू माया बिहड़ै देखतां, काया संग न जाइ ।*
*कृत्रिम बिहड़ै बावरे, अजरावर ल्यौ लाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ Mahant Ram Gopal Das Tapasvi
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*शक्ति शिव शोध का अंग १०८*
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लागी सो त्यागी तबहिं, मोहि कहो समझाय । 
एक ब्रह्म दूसरी माया, यहु संशय नहिं जाय ॥५॥ 
जो माया लगी है, उसे उसी समय त्याग दिया, यह मुझे समझाकर कहो कि कैसे त्यागी ? एक तो ब्रह्म है, उससे भिन्न दूसरी जो भी वस्तु है, सो माया है । अत: यह माया त्यागने सम्बंधी संशय इस परिस्थिति में दूर नहीं हो सकता । 
जन रज्जब मन शून्य सम, बादल मय सु विभूति । 
सगुण निर्गुण संग सो, क्यों काढिये सु सूति ॥६॥ 
मन आकाश के समान है और माया बादल के समान है, जैसे बादल आकाश को नहीं छोड़ते, वैसे ही माया मन को नहीं छोड़ती । माया तो सगुण - निर्गुण दोनों के ही साथ रहती है, उसे मन से सुगमता से कैसे निकाला जा सकता है । 
माया बादल वारि१ गति, आतम शून्य२ समान । 
सगुण रु निर्गुण शक्ति ह्वै, रज्जब रिधि३ विधि सान४ ॥७॥ 
माया बादलों के जल१ के समान है और आत्मा आकाश२ के समान है, जैसे बादलों का जल स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों अवस्थाओं में आकाश में ही रहता है, वैसे ही माया३ सगुण और निर्गुण शक्ति रूप होकर आत्मा के साथ मिली४ रहती है । 
ज्यों कूकस१ कण में रहै, त्यों माया मधि२ प्राण । 
जन रज्जब यहु युगल३ यूं, करै कौन विधि छाण४ ॥८॥ 
जैसे अन्न-कण में तुस१ रहते हैं, वैसे ही प्राणी में२ माया रहती है, दोनों३ ऐसे ही रहते हैं, इनको किस प्रकार अलग४ किया जा सकता है ।
(क्रमशः)

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