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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग रामकली ८ (गायन समय प्रभात ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२०३ - शब्द बाण । त्रिताल
सँतो ! राम बाण मोहि लागे ।
मारत मिरग मरम तब पायो,
सब संगी मिल जागे ॥टेक॥
चित चेतन चिन्तामणि छीन्हा,
उलट अपूठा आया ।
मंदिर पैसि बहुरि नहिं निकसे,
परम तत्व घर पाया ॥१॥
आवै न जाइ जाइ नहिं आवै,
तिहिं रस मनवा माता ।
पान करत परमानन्द पायो,
थकित भयो चलि जाता॥२॥
भयो अपँग पँक नहिं लागै,
निर्मल संग सहाई ।
पूरण ब्रह्म अखिल अविनाशी,
तिहिं तज अन्त न जाई ॥३॥
सो शर लागि प्रेम परकाशा,
प्रकटी प्रीतम वाणी ।
दादू दीनदयाल हि जानैं,
सुख में सुरति समाणी॥४॥
शब्द - बाण की विशेषता बता रहे हैं - हे सन्तो ! सद्गुरु के द्वारा चलाये हुये राम सम्बन्धी शब्द - बाण मेरे लगे हैं । सद्गुरु ने शब्द - बाण से जब मन - मृग को मारा, तब मुझे परमार्थ का रहस्य मिला, फिर तो इन्द्रिय रूप सभी साथी भी उस रहस्य से मिल कर विषयासक्ति रूप निद्रा से जग गये हैं ।
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चित्त ने चेतन - चिन्तामणि को पहचाना, तब विषयों से प्रसन्न न हो उनसे लौट आया तथा हृदय मंदिर में प्रविष्ट होकर फिर नहीं निकलता, कारण, परम तत्व ब्रह्म अपने घर में प्राप्त कर लिया है ।
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मन ने ब्रह्म - चिन्तन रूप रस पान करते २ परमानन्द प्राप्त कर लिया है । अब उसी में मस्त है । अत: विषय सुख की आशा द्वारा एक विषय पर आकर दूसरे पर जाना और जाकर आना रुक गया है । पहले बारम्बार चला जाता था किन्तु अब थक गया है, आशा रूप पैरों से रहित हो गया है,
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अब इसके पाप रूप कीचड़ नहीं लगता । निर्मल ब्रह्म के साथ रहता है और वह इसका सहायक है । अब तो यह सर्वात्मा अविनाशी पूर्ण ब्रह्म को त्याग कर अन्य पर जाता ही नहीं ।
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उस सद्गुरु शब्द - बाण के लगने से हृदय में प्रभु प्रेम प्रकट हुआ और प्रियतम प्रभु सम्बन्धी अनुभव वाणी प्रकट हुई है । अब एकमात्र दीन दयालु प्रभु को ही अपना जानता है और उसी सुख स्वरूप - ब्रह्म में मन - वृत्ति समाई रहती है ।
(क्रमशः)
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