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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू स्वर्ग भुवन पाताल मधि, आदि अंत सब सृष्ट ।*
*सिरज सबन को देत है, सोई हमारा इष्ट ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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माँग्या अण माँग्या मिलै, जो जीव को जगपति कीन ।
बंदे बे परवाह यूं, भूल न भाखै दीन ॥५३॥
जगतपति प्रभु ने जीव के लिये जो रच दिया है, वह तो माँगे वा बिना माँगे भी मिलेगा ही, ऐसा समझ करके ही संतजन बेपरवाह रहते हैं, भूल से भी दीन वचन नहीं बोलते ।
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चाकर अण चाकर लहैं, बरा१ विश्वंभर देय ।
पूरण पूरै२ सकल को, सो पलटा नाहिं लेय ॥५४॥
सेवा करने वाले और न करने वाले दोनों को ही विश्वंभर भगवान् जीविका१ देते हैं, वे पूर्ण ब्रह्म सभी का पोषण२ करते हैं, और बदले में कुछ भी नहीं लेते ।
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साधु सबूरी१ में रहै, निष्कामी रु निराश ।
तो रज्जब ता दास घर, सांई होय सु दास ॥५५॥
जो साधु निष्कामी, आशा रहित और संतोष१ निमग्न रहता है तब उस दास के घर पर प्रभु भी दास होकर रहते हैं अर्थात उसका योगक्षेम करते हैं ।
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निश्चल में निश्चल रहै, निज जन नाम निवास ।
जो रज्जब माया ब्रह्म, होंहि दास घर दास ॥५६॥
प्रभु के निजी भक्तों का मन जब नाम चिन्तन में स्थिर रह कर निश्चल होता है तब निश्चल ब्रह्म में स्थिर रहता है, यह अवस्था आने पर माया और ब्रह्म दोनों ही उस भक्त के घर दास बने रहते हैं ।
(क्रमशः)
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