परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी
शनिवार, 13 जून 2020
साँच का अंग ११७/१२०
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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*॥ जाति पांति भ्रम विधूंसण ॥*
*अपनी अपनी जाति सौं, सब को बैसैं पांति ।*
*दादू सेवग राम का, ताके नहीं भरांति ॥११७॥*
राम का सच्चा भक्त जाति वर्णाश्रम भेद से रहित होता है क्योंकि वह सर्वत्र राम को ही देखता है । जो अज्ञानी संसारी पुरुष है वे तो जाति वर्ण आश्रम धर्मों से बंधे हुए अपने जाति वालों को ही चाहते हैं भोजन के समय अपने जाति वालों की पंक्ति में बैठकर भोजन करते है दूसरों के साथ नहीं बैठते क्योंकि उनकी बुद्धि भ्रान्त रहती है ।
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*चोर अन्याई मसखरा, सब मिलि बैसैं पांति ।*
*दादू सेवक राम का, तिन सौं करैं भरांति ॥११८॥*
जो चोर अन्यायी अधर्मात्मा है वे एक जाति के होने से भोजन के समय एक पंक्ति में बैठकर भोजन कर लेते हैं और राम भक्त को अपने साथ बैठने में निषेध करते हैं कि तुम हमारे साथ बैठकर भोजन नहीं कर सकते । क्योंकि आप अपवित्र हैं । ऐसे विचार वाले पुरुष भ्रान्त हैं । क्योंकि भक्त के सदृश तो कोई पवित्र होता ही नहीं जो दूसरों को भी पवित्र बना देता है ।
लिखा है कि- “जो एकबार भी मैं ब्रह्म हूं, ऐसा ध्यान कर लेता है, वह सब पापों से तर जाता है । चाहे वे पाप करोड़ों कल्पों के ही क्यों न हों ।
अत्यन्त पापी भी एक बार एक निमेष के लिये भी अच्युत भगवान् का ध्यान करता है तो वह तपस्वी बन जाता है और सभी पापियों को भी पवित्र कर देता है ।
राग द्वेष से रहित प्रभु का भक्त चाण्डाल भी ब्राह्मण से अधिक पवित्र है । जो ब्राह्मण राग द्वेष वाला है वह चाण्डाल से भी अधिक अधम है ।”
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*दादू सूप बजायां क्यों टलै, घर में बड़ी बलाइ ।*
*काल झाल इस जीव का, बातन ही क्यों जाइ ॥११९॥*
किसी के घर में यदि भूत का प्रवेश हो जाय तो वह प्रेत साधारण दण्ड आदि के दिखाने मात्र से बाहर नहीं जाता, किन्तु बार बार प्रयत्न करने से ही निकलता है । ऐसे ही जिसके अन्तःकरण में काम क्रोध आदि शत्रु बसे हुए हैं वे वर्ण आश्रम आदि कर्मों की वार्ता करने से नहीं निकलते किन्तु ज्ञान से जब भ्रान्ति दूर होगी तब ही वे निवृत्त होंगे ।
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*साँप गया सहनाण को, सब मिलि मारैं लोक ।*
*दादू ऐसा देखिए, कुल का डगरा फोक ॥१२०॥*
घने अन्धकार में सर्प के चले जाने पर उस सर्प की लकीर को सर्प मान कर दण्ड आदि से उस लकीर को मारने से सर्प नहीं मरता ऐसे भ्रान्तिजन्य जातिकृत स्पर्श अस्पर्शभेद भी जातिगत पक्षपात से या स्नानादि द्वारा शुद्धिकरण से निवृत्त नहीं होता क्योंकि वह अज्ञानजन्य है । किन्तु ब्रह्मज्ञान के द्वारा ही निवृत्त होता है । अतः जातिगत भेद को लेकर स्पर्श अस्पर्शादि भेद व्यर्थ ही है ।
(क्रमशः)
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