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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*दादू ये सब किसके ह्वै रहे, यहु मेरे मन माँहि ।*
*अलख इलाही जगत-गुरु, दूजा कोई नांहि ॥११३॥*
तैतरीय में लिखा है कि परमात्मा के भय से वायु चल रही है, उसी के भय से सूर्य चन्द्रमा उदित हो रहे हैं उसी के भय से अग्नि इन्द्र आदि देवता अपने अपने कर्मों में स्थित हैं । पांचवां मृत्यु भी उसी के भय से दौड़ता रहता है ।
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*॥ पतिव्रत व्यभिचार ॥*
*दादू औरैं ही औला तके, थीयां सदै बियंनि ।*
*सो तू मीयां ना घुरै, जो मीयां मीयंनि ॥११४॥*
हे मियां(साधक) परात्परमात्मा को क्यों नहीं पूजता, जो सबका नियन्ता है । व्यर्थ ही दूसरे पैगम्बरों का आश्रय टटोल रहा है । वे स्थिर नहीं है, अतः परमात्मा का ही पूजन करो क्योंकि वह नित्य है ।
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*॥ सत असत गुरु पारख लक्षण ॥*
*आई रोजी ज्यों गई, साहिब का दीदार ।*
*गहला लोगों कारणैं, देखै नहीं गँवार ॥११५॥*
जिस पुरुष की साधना केवल अपनी प्रतिष्ठा जमाने के लिये ही है न कि ब्रह्मसाक्षात्कार के लिये । उसकी वह साधना व्यर्थ ही है और असद्गुरु ही कहलाता है । क्योंकि अज्ञानी होने से वह असद्गुरु ही है । जो मनुष्य जन्म प्राप्त करके ब्रह्मप्राप्ति के लिये यत्न करता है उसका नर जन्म लेना सफल है । क्योंकि यह नर जन्म दुर्लभ है । अतः मनुष्य जन्म प्राप्त करके कल्याण के लिये ही यत्न करना चाहिये । इसी भाव को लेकर श्रीमद्भागवत में लिखा है कि-यह मनुष्य जन्म अनेक जन्मों के अन्त में मिलता है जो धर्म अर्थ मोक्ष का देने वाला है और अनित्य क्षणभंगुर है । अतः कल्याण के लिये यत्न करना चाहिये । क्योंकि विषय सुख तो अन्य जन्मों में भी मिलता ही रहता है ।
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*दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत ।*
*दूजा को भावै नहीं, एक पियारा मिंत ॥११६॥*
भक्तों में प्रधान वह है जो एक प्रिय परमात्मा का ही ध्यान करता है, न कि देवादिकों का और अपने योगक्षेम का भी जरा सा भी चिन्तन नहीं करता । भागवत में-
“मैं सात्विक राजस तामस सारी कामनाओं को त्याग कर केवल माया रहित गुणातीत एक अद्वितीय चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण आया हूँ ।”
मैं अनादि काल से कर्मफलों को भोगते भोगते अत्यन्त दुःखी हो रहा था उनकी दुःख ज्वाला मुझे सदा जलाती रहता थी । पांचों इन्द्रियाँ और मन ये मेरे छ शत्रु कभी शान्त नहीं होते थे । उनकी विषयों की प्यास बढ़ती ही रहती थी और क्षण भर के लिये भी शान्ति नहीं मिलती थी । अब मैं आपके भय शोक से रहित चरण कमलों की शरण में आया हूं । हे ईश्वर आप मेरी रक्षा कीजिये ।
(क्रमशः)
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