🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*गई दशा सब बाहुड़ै, जे तुम प्रकटहु आइ ।*
*दादू ऊजड़ सब बसै, दर्शन देहु दिखाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
========================
साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
.
*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
.
*१६३. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय*
.
*मिलन*– यह विषय वर्णनातीत है। सम्मिलन में क्या सुख है, यह बात तो अनुभवगम्य है, इसे तो प्रेमी और प्रेम पात्र के सिवा दूसरा कोई जान ही नहीं सकता। इसीलिये कवियों ने इसका विशेष वर्णन नहीं किया है। सम्मिलन सुख को तो दो ही एक होकर जान सकते हैं। वे स्वयं उसका वर्णन करने में असमर्थ होते हैं, फिर कोई वर्णन करे भी तो कैसे करे?
.
अनुभव होने पर वर्णन करने की शक्ति नहीं रहती और बिना अनुभव के वर्णन व्यर्थ है। इसलिये इस विषय में सभी कवि उदासीन से ही दीख पड़ते हैं। श्रीमद्भागवतादि में वर्णन है, किन्तु वह आटे में नमक के ही समान प्रसंगवश यत्किंचित है। सभी ने विरह के वर्णन में ही अपना पाण्डित्य प्रदर्शित किया है।
.
और यदि कुछ वर्णन हो सकता है तो यत्किंचित विरह का ही हो सकता है। उसी के वर्णन में मज़ा है। सम्मिलन सुख को तो वे दोनों ही लूटते हैं। सुनिये, रसिक रसखान जी ने दूर खड़े होकर इस सम्मिलन का बहुत ही थोड़ा वर्णन किया है। किन्तु वर्णन करने में कमाल कर दिया है। दो प्रेमियों के सम्मिलन का इतना सजीव और जीता-जागता चित्र शायद ही किसी अन्य कवि की कविता में मिले।
.
एक सखी दूसरी सखी से श्रीराधिका जी और श्रीकृष्ण के सम्मिलन का वर्णन कर रही है। सखी कहती है–
ऐ री आज काल्हि सब लोकलाज त्यागि दोऊ,
सीखे हैं सबै बिधि सनेह सरसायबो।
यह रसखन दिन द्वैमें बात फैलि जैहैं
कहाँ लौं सयानी ! चंद हाथन छिपायबो॥
आज हौं निहारयो बीर, निकट कालिंदी तीर
दोउन को दोउनसौं मुख मुसकायबो।
दोउ परैं पैयाँ दोउ लेत हैं बलैयाँ उन्हें,
भूल गईं गैयां, इन्हें गागर उठायबो॥
.
कैसा सजीव वर्णन है ! वह भी कालिन्दी-तीर पर एकान्त में हुआ था, इसलिये छिपकर सखी ने देख भी लिया, कहीं अन्त:पुर में होता तो फिर वहाँ उसकी पहुँच कहां–
‘दोउ परैं पैयाँ दोउ ले हैं बलैयां उन्हें,
भूल गईं गैयां, इन्हें गागर उठायबो॥’
-कहकर तो सखी ने कमाल कर दिया है। धन्य है ऐसे सम्मिलन को !
.
*विरह*- इन तीनों में उत्तरोत्तर एक-दूसरे से श्रेष्ठ है। पूर्वानुरागी की अपेक्षा मिलन श्रेष्ठ है और मिलन की अपेक्षा विरह श्रेष्ठ है, प्रेमरूपी दूध का विरह ही मक्खन है। इसीलिये कबीरदास जी ने कहा है–
बिरहा बिरहा मत कहौ, बिरहा है सुलतान।
जेहि घट बिरह न संचरै, सो घट जान मसान॥
.
अब विरह के तीन भेद हैं– भविष्य विरह, वर्तमान विरह और भूत विरह। इनमें भी परस्पर उत्तरोत्तर उत्कृष्टता है। भावी विरह बड़ा ही करुणोत्पादक है, उससे भी दु:खदायी वर्तमान विरह। भूत विरह तो दु:ख-सुख की पराकाष्ठा से परे ही है।
.
पहले भावी विरह को ही लीजिये। ‘प्यारा कल चला जायगा,’ बस, इस भाव के उदय होते ही जो कलेजे में एक प्रकार की ऐंठन सी होने लगती है, उसी ऐंठन का नाम ‘भावी विरह’ है। इसका उदय नायिका के ही हृदय में उत्पन्न होता हो, से बात नहीं है। अपने प्यारे के विछोह में सभी हृदय में यह विरह-वेदना उत्पन्न हो सकती है।
.
जिस कन्या को आज पन्द्रह-बीस वर्षों से पुत्री की तरह लाड़-प्यार किया था, वही शकुन्तला आश्रम त्यागकर अपने पति के घर जायगी, इस बात के स्मरण से ही शकुन्तला के धर्मपिता भगवान कण्व ऋषि का कलेजा कांपने लगा ! हाय ! अब शकुन्तला फिर देखने को न मिलेगी? इस विचार से वे शोकयुक्त हुए बैठे हैं।
.
वे कैसे भी सहृदय क्यों न थे, किन्तु थे तो ज्ञानोपासक। चिन्ता में एकदम रागमार्गीय गोपिकाओं की भाँति अपने को भूल नहीं गये। ये उस अन्त:करण की स्वाभाविक प्रवृत्ति पर विचार करते-करते कहने लगे। ऋषि के इन वाक्यों में कितनी करुणा है, कैसी वेदना है, पुत्री-विरह का यह संस्कृत-भाषा में सर्वोत्कृष्ट श्लोक कहा जा सकता है।
.
ऋषि सोच रहे हैं–
यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया
कण्ठ: स्तम्भितवाष्पवृत्तिकलुषश्चिन्ताजडं दर्शनम्।
वैक्लव्यं मम तावदीदृशमपि स्नेहादरण्यौकस:
पीड्यन्ते गृहिण: कथं न तनयाविश्लेषदु:खैर्नवै:॥
‘शकुन्तला आज चली जायगी, इस विचार के आते ही मेरे हृदय में एक प्रकार की कँपकँपी सी हो रही है, एक प्रकार की विचित्र उत्कण्ठा सी प्रतीत होती है। गला अपने आप रुद्ध सा हो रहा है, अश्रु स्वत: ही निकल पड़ते हैं, एक प्रकार की जड़ता का अनुभव कर रहा हूँ। जाने क्यों दिल में घबड़ाहट सी हो रही है। जब वनवासी वीतराग मुझ मुनि की ही ऐसी दशा है, तो गृहस्थाश्रम के मोह में फँसे हुए गृहस्थियों की तो पुत्री-वियोग के समय न जाने क्या दशा होती होगी ?’
.
इन वाक्यों में भगवान कण्व की छिपी हुई भावी वेदना है। वे अपने भारी ज्ञान के प्रभाव से उसे छिपाना चाहते हैं, किन्तु श्रीकृष्ण के मथुरा गमन का समाचार सुनकर गोपिकाओं को जो भारी विरह-वेदना हुई वह तो खुद बात ही दूसरी है। वैसे तो सभी का विरह उत्कृष्ट है, किन्तु राधिका जी के विरह को ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें