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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*कालर खेत न नीपजै, जे बाहे सौ बार ।*
*दादू हाना बीज का, क्या पचि मरै गँवार ॥१२९॥*
*॥ कृतमकर्ता ॥*
*दादू जिन कंकर पत्थर सेविया, सो अपना मूल गँवाइ ।*
*अलख देव अंतर बसै, क्या दूजी जगह जाइ ॥१३०॥*
सर्व व्यापक अपने हृदय में ही स्थित परमात्मा को त्याग कर पाषाण कल्पित मूर्ति आदि में भगवान् की पूजा करता है तो उसका जीवन व्यर्थ ही जा रहा है, उसको सौ जन्मों में भी ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि उसकी भेद बुद्धि निवृत्त नहीं होती ।
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*पत्थर पीवे धोइ कर, पत्थर पूजे प्राण ।*
*अन्तकाल पत्थर भये, बहु बूडे इहि ज्ञान ॥१३१॥*
जो पाषण से निर्मित मूर्ति को पाषण बुद्धि से स्नान कराते हुए उस जल का आचमन लेते हैं, धूप दीपादिक से पूजन करते हैं । उनको सर्वव्यापक ब्रह्म का ज्ञान न होने से मिथ्या पूजन में लगे हुए संसार में ही डूबे रहते हैं ।
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*कंकर बंध्या गांठड़ी, हीरे के विश्वास ।*
*अंतकाल हरि जौहरी, दादू सूत कपास ॥१३२॥*
कोई अज्ञानी पत्थर के टुकड़ों को हीरा मान कर जौहरी के पास उनकी परीक्षा के लिये ले जा कर दिखाता है तो जौहरी उसको देख कर कहेगा कि क्या आप इन पत्थर के टुकड़ों को ही हीरा समझ रहे हैं । क्या हीरे ऐसे ही होते हैं? आप अन्धे हैं क्या, इस तरह वह व्यक्ति हंसी का पात्र बनता है । ऐसे ही पत्थर से बनाई गई मूर्ति को ईश्वर मानकर पूजता है तो वह सन्त समाज में जिन्होंने आत्मा का साक्षात्कार किया है, निन्दा का पात्र बनेगा । क्योंकि आत्मा चेतन होता है और वह मूर्ति जड़ है । अतः भ्रान्ति को त्याग कर ज्ञान प्राप्त करो ।
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*॥ संस्कार आगम ॥*
*दादू पहली पूजे ढूंढसी, अब भी ढूंढस बाणि ।*
*आगे ढूंढस होइगा, दादू सत्य कर जाणि ॥१३३॥*
पूर्व-पूर्व संस्कार के कारण उत्तर-उत्तर जन्म लेते रहते हैं । पूर्व जन्म में भी पत्थर निर्मित मूर्तिपूजन के कारण इस जन्म में भी उसी का पूजन करता है । अतः यह संस्कार परम्परा नष्ट नहीं होगी और ज्ञान न होने से मोक्ष भी नहीं मिलेगा । अतः मुमुक्षुसाधक को मुक्ति के लिये भगवान् का ही पूजन करना चाहिये ।
उक्तं सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रहे- यदि साधक मुक्त होना चाहता है तो उसको रजोगुण और तमोगुण तथा उनके कार्यों से अपने मन को अलग करके विशुद्ध परमप्रिय ब्रह्म का ही प्रयत्नपूर्वक ध्यान करना चाहिये ।
(क्रमशः)
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