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*मनमोहन हो !*
*कठिन विरह की पीर, सुन्दर दरस दिखाइये ॥*
*सुनहु न दीन दयाल, तव मुख बैन सुनाइये ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ४१६)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६३. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय*
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सचमुच ये भाव सरस नारी हृदय में ही पूर्णतया प्रकट हो सकते हैं। गोपिकाओं के बिना इस विरह-वेदना का अधिकारी दूसरा हो ही कौन सकता है? रथ पर बैठकर मथुरा जाने वाले श्रीकृष्ण के विरह में व्रजांगनाओं की क्या दशा हुई, इसे भगवान व्यासदेव की ही अमर वाणी में सुनिये। उनके बिना इस अनुभवगम्य विषय का वर्णन कर ही कौन सकता है?
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एवं बुवाणा विरहातुरा भृशं
व्रजस्त्रिय: कृष्णविषक्तमानसा:।
विसृज्य लज्जां रुरुदु: स्म सुस्वरे
गोविन्द दामोदर माधवेति॥
श्रीशुकदेव जी राजा परीक्षित से कह रहे हैं– ‘राजन् ! जिनके चित्त श्रीकृष्ण में अत्यन्त ही आसक्त हो रहे हैं, जो भविष्य में होने वाले विरह-दु:ख को स्मरण करके घबड़ायी हुई नाना भाँति के आर्तवचनों को कहती हुई और लोक लाज आदि बात की भी परवाह न करती हुई वे व्रज की स्त्रियां ऊँचे स्वर से चिल्ला-चिल्लाकर हा गोविन्द ! हा माधव ! ! हा दामोदर ! ! ! कह-कहकर रुदन करने लगीं।’
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यही वर्तमान विरह का सर्वोत्तम उदाहरण है। प्यारे चले गये, अब उनसे फिर भेंट होगी या नहीं इसी द्विविध का नाम ‘भूत विरह’ है। इसमें आशा-निराशा दोनों का सम्मिश्रण है। यदि मिलन की एकदम आशा ही न रहे तो फिर जीवन का काम ही क्या? फिर तो क्षणभर में इस शरीर को भस्म कर दें।
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प्यारे के मिलन की आशा तो अवश्य है, किन्तु पता नहीं वह आशा कब पूरी होगी। पूरी होगी भी या नहीं, इसका भी कोई निश्चय नहीं। बस, प्यारे एक ही बार, दूर से ही थोड़़ी ही देर के लिये क्यों न हो, दर्शन हो जायँ। बस, इसी एक लालसा से वियोगिनी अपने शरीर को धारण किये रहती है। उस समय उसकी दशा विचित्र होती है।
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साधारणतया उस विरह की दश दशाएं बतायी गयी हैं। वे ये हैं–
चिन्तात्र जागरोद्वेगो तानवं मलिनांगता।
प्रलापो व्याधिरुन्मादो मोहो मृत्युर्दशा दश॥[१]
([१] उज्ज्वलनीलमणि श्रृं. ६४)
‘चिन्ता, जागरण, उद्वेग, कृशता, मलिनता, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, मोह और मृत्यु- ये ही विरह की दस दशाएँ हैं।’
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अब इनका संक्षिप्त विवरण सुनिये–
*चिन्ता* – अपने प्यारे के ही विषय में सोते-जागते, उठते-बैठते हर समय सोचते रहने का नाम चिन्ता है। मन में दूसरे विचारों के लिये स्थान ही न रहे। व्रजभाषा गगन के परम प्रकाशमान ‘सूर’ ने चिन्ता का कैसा सजीव वर्णन किया है–
नाहिन रह्यो मन में ठौर।
नंद-नंदन अछत कैसे आनिये उर और।
चलत चितवत दिवस जागत, सुपन सोवत रात।
हृदयतें वह स्याम मूरति छिन न इत उत जात॥
स्याम गात सरोज आनन ललित-गति मृदु-हास।
‘सूर’ ऐसे रूप कारन मरत लोचन-प्यास॥
प्यासे फिर नींद कहां? नींद तो आँखों में ही आती है आँखें ही रूप की प्यासी हैं, ऐसी अवस्था में नींद वहाँ आ ही नहीं सकती। इसलिये विरह की दूसरी दशा ‘जागरण’ है।
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*जागरण* – न सोने का ही नाम ‘जागरण’ है। यदि विरहिन को क्षणभर के लिये निद्रा आ जाय तो वह स्वप्न में तो प्रियतम के दर्शन-सुख का आनन्द उठा ले। किन्तु उसकी आँखों में नींद कहाँ? राधिका जी अपनी एक प्रिय सखी से कह रही हैं–
या: पश्यन्ति प्रियं स्वप्ने धन्यास्ता: सखि योषित:।
अस्माकं तु गते कृष्णे गता निद्रापि वैरिणी॥[२]
([२] पद्यावली)
‘प्यारी सखी ! वे स्त्रियां धन्य हैं जो प्रियतम के दर्शन स्वप्न में तो कर लेती हैं। मुझ दु:खिनी के भाग्य में तो यह सुख भी नहीं बदा है। मेरी तो वैरिणी निद्रा भी श्रीकृष्ण के साथ-ही-साथ मथुरा को चली गयी। वह मेरे पास आती ही नहीं’। धन्य है, निद्रा आवे कहाँ? आँखों में तो प्यारे रूप ने अड्डा जमा लिया है। एक म्यान में दो तलवार समा ही कैसे सकती हैं?
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*उद्वेग* - हृदय में जो एक प्रकार की हलचलजन्य बेकली-सी होती है उसी का नाम उद्वेग है। भारतेन्दु हरश्चिन्द्र ने उद्वेग का कितना सुन्दर वर्णन किया है–
व्याकुलही तडपौं बिनु प्रीतम,
कोऊ तौ नेकु या उर लाओ,
प्यासी तजौं तुन रूप-सुधा बिनु,
पानिय पीको पपीहै पिआओ॥
जीयमें हौस कहूँ रहि जाय न,
हा ! ‘हरिचंद’ कोऊ उठि धाओ॥
आवै न आवै पियारो अरे !
कोउ हाल तौ जाइकै मेरो सुनाओ॥
पागलपन की हद हो गयी न ! भला कोई जाकर हाल ही सुना देता तो इससे क्या हो जाता? अब चौथी दशा कृशता का समाचार सुनिये।
(क्रमशः)
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