परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी
सोमवार, 13 जुलाई 2020
*१७५. ठाकुर नरोत्तमदास जी*
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*कछु न कहावे आप को, सांई को सेवे ।*
*दादू दूजा छाड़ि सब, नाम निज लेवे ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७५. ठाकुर नरोत्तमदास जी*
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लोकनाथप्रियं धीरं लोकातीतं च प्रेमदम्।
श्रीनरोत्तमनामाख्यं तं विरक्तं नमाम्यहम्॥[१]
([१] श्रीलोकनाथ गोस्वामी के परम प्रिय शिष्य, महाधैर्यवान् और लोकातीत कर्म करने वाले उन श्री नरोत्तमदास जी के चरणों में मैं प्रणाम करता हूँ, जो राज-पाट को छोड़कर विरक्त बनकर लोगों को प्रेमदान देते रहे।)
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पद्मा नदी के किनारे पर खेतरी नाम की एक छोटी सी राजधानी है। उसी राज्य में स्वामी श्री कृष्ण नन्ददत्त मजूमदार के यहाँ नारायणी देवी के गर्भ से ठाकुर नरोत्तमदास जी का जन्म हुआ। ये बाल्यकाल से ही विरक्त थे। घर में अतुल ऐश्वर्य था, सभी प्रकार के संसारी सुख थे, किन्तु इन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था।
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ये वैष्णवों के द्वारा श्रीगौरांग की लीलाओं का श्रवण किया करते थे। श्रीरूप तथा सनातन और श्री रघुनाथदास जी के त्याग और वैराग्य की कथाएँ सुन-सुनकर इनका मन राज्य, परिवार तथा धन-सम्पत्ति से एकदम फिर गया। ये दिन-रात श्री गौरांग की मनोहर मूर्ति का ही ध्यान करते रहे।
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सोते-जागते, उठते-बैठते इन्हें चैतन्यलीलाएँ ही स्मरण होने लगीं। घर में इनका चित्त एकदम नहीं लगता था। इसलिये ये घर को छोड़कर कहीं भाग जाने की बात सोच रहे थे। गौरांग महाप्रभु तथा उनके बहुत-से प्रिय पार्षद इस संसार को त्यागकर वैकुण्ठवासी बन चुके थे। बालक नरोत्तमदास कुछ निश्चित न कर सके कि किसके पास जाऊँ।
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पण्डित गोस्वामी, स्वरूपदामोदर, नित्यानन्द जी, अद्वैताचार्य तथा सनातन आदि बहुत से प्रभुपार्षद इस संसार को छोड़ गये थे। अब किसकी शरण में जाने से गौर प्रेम की उपलब्धि हो सकेगी– इसी चिन्ता में ये सदा निमग्न रहते।
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एक दिन स्वप्न में इन्हें श्रीगौरांग ने दर्शन दिये और आदेश दिया कि– ‘तुम वृन्दावन में जाकर लोकनाथ गोस्वामी के शिष्य बन जाओ’। बस, फिर क्या था, ये एक दिन घर से छिपकर वृन्दावन के लिये भाग गये और वहाँ श्री जीवगोस्वामी के शरणापन्न हुए।
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इन्होंने अपने स्वप्न का वृत्तान्त जीवगोस्वामी को सुनाया। इसे सुनकर उन्हें प्रसन्नता भी हुई और कुछ खेद भी। प्रसन्नता तो इनके राज-पाट, धन-धान्य तथा कुटुम्ब-परिवार के परित्याग और वैराग्य के कारण हुई। खेद इस बात का हुआ कि लोकनाथ गोस्वामी किसी को शिष्य बनाते ही नहीं। शिष्य न बनाने का उनका कठोर नियम है।
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श्री लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी दोनों ही महाप्रभु के संन्यास लेने से पूर्व ही उनकी आज्ञा से वृन्दावन में आकर चीरघाट पर एक कुंजकुटीर बनाकर साधन-भजन करते थे। लोकनाथ गोस्वामी का वैराग्य बड़ा ही अलौकिक था। वे कभी किसी से व्यर्थ की बातें नहीं करते। प्राय: वे सदा मौन से ही बने रहते।
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शान्त एकान्त स्थान में वे चुपचाप भजन करते रहते, स्वत: ही कुछ थोड़ा-बहुत प्राप्त हो गया, उसे पा लिया, नहीं तो भूखे ही पड़े रहते। शिष्य न बनाने का इन्होंने कठोर नियम कर रखा था, इसलिये आज तक इन्होंने किसी को भी मंत्र दीक्षा नहीं दी थी।
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श्री जीवगोस्वामी इन्हें लोकनाथ गोस्वामी के आश्रम में ले गये और वहाँ जाकर इनका उनसे परिचय कराया। राजा कृष्णानन्ददत्त के सुकुमार राजकुमार नरोत्तमदास के ऐसे वैराग्य को देखकर गोस्वामी लोकनाथ जी अत्यन्त ही संतुष्ट हुए।
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जब इन्होंने अपनी दीक्षा की बात की तब उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ‘हमें तो गौर ने आज्ञा नहीं दी। हमारा तो शिष्य न करने का नियम है। तुम किसी और गुरु की शरण में जाओ।’ इस उत्तर से राजकुमार नरोत्तमदास जी हताश या निराश नहीं हुए, उन्होंने मन ही मन कहा– ‘मुझ में शिष्य बनने की सच्ची श्रद्धा होगी तो आपको ही दीक्षा देनी होगी।’ यह सोचकर ये छिपकर वहीं रहने लगे।
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श्री लोकनाथ गोस्वामी प्रात:काल उठकर यमुना जी में स्नान करने जाते और दिन भर अपनी कुंजकुटी में बैठे-बैठे हरिनाम-जप किया करते। नरोत्तमदास छिपकर उनकी सेवा करने लगे। वे जहाँ शौच जाते, उस शौच को उठाकर दूर फेंक आते।
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जिस कंकरीले, पथरीले और कण्टकाकीर्ण रास्ते से वे यमुना स्नान करने जाते उस रास्ते को खूब साफ करते। उसके कांटेदार वृक्षों को काटकर दूसर ओर फेंक देते, वहाँ सुन्दर बालुका बिछा देते। कुंज को बांध देते। उनके हाथ धोने को नरम-सी मिट्टी लाकर रख देते। दोपहर को उनके लिये भिक्षा लाकर चुपके से रख जाते।
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सारांश यह कि जितनी वे कर सकते थे और जो भी उनके सुख का उपाय सूझता उसे ही सदा करते रहते। इस प्रकार उन्हें गुप्त रीति से सेवा करते हुए बारह-तेरह महीने बीत गये। जब सब बातें गोस्वामी जी को विदित हो गयीं तो उनका हृदय भर आया। अब वे अपनी प्रतिज्ञा को एकदम भूल गये, उन्होंने राजकुमार नरोत्तम को हृदय से लगा लिया और उन्हें मंत्र दीक्षा देने के लिये उद्यत हो गये।
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बात की बात में यह समाचार सम्पूर्ण वैष्णव समाज में फैल गया। सभी आकर नरोत्तमदास जी के भाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। दीक्षा तिथि श्रावण की पूर्णिमा निश्चित हुई, उस दिन सैकड़ों विरक्त भक्त श्रीलोकनाथ गोस्वामी के आश्रम पर एकत्रित हो गये। जीवगोस्वामी ने माला पहनाकर नरोत्तमदास जी को गुरु के चरणों में भेजा।
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गुरु ने पहले उनसे कहा– ‘जीवनभर अविवाहित रहना होगा। सांसारिक सुखों को एकदम तिलांजलि देनी होगी। मांस-मछली जीवन में कभी न खानी होगी’। नतमस्तक होकर नरोत्तमदास जी ने सभी बातें स्वीकार कीं। तब गोस्वामी जी ने इन्हें विधिवत् दीक्षा दी।
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नरोत्तम ठाकुर का अब पुनर्जन्म हो गया। उन्होंने श्रद्धा-भक्ति के सहित सभी उपस्थित वैष्णवों की चरणवन्दना की। गुरु देव की पदधूलि मस्तक पर चढ़ायी और वे उन्हीं की आज्ञा से श्री जीवगोस्वामी के समीप रहकर भक्तिशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करते रहे।
(क्रमशः)
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