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*साधु नदी जल राम रस, तहाँ पखाले अंग ।*
*दादू निर्मल मल गया, साधु जन के संग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७६. महाप्रभु के वृन्दावनस्थ छ: गोस्वामिगण*
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*श्री जीवगोस्वामी जी*
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श्री अनूप-तनय स्वामी श्रीजीव जी का वैराग्य परमोत्कृष्ट था। ये आजन्म ब्रह्मचारी रहे। स्त्रियों के दर्शन तक नहीं करते थे। पिता के वैकुण्ठवास हो जाने पर और दोनों ताउओं के गृहत्यागी-विरागी बन जाने पर इन्होंने भी उन्हीं के पथ का अनुसरण किया और ये भी सब कुछ छोड़कर श्री वृन्दावन में जाकर अपने पितृव्यों के चरणों का अनुसरण करते हुए शास्त्र-चिन्तन और श्रीकृष्ण-कीर्तन में अपना समय बिताने लगे।
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ये अपने समय के एक नामी पण्डित थे। व्रजमण्डल में इनकी अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। देवताओं को भी अप्राप्य व्रज की पवित्र भूमि को परित्याग करके ये कहीं भी किसी के आग्रह से बाहर नहीं जाते थे।
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सुनते हैं, एक बार अकबर बादशाह ने अत्यन्त ही आग्रह के साथ इन्हें आगरे बुलाया था और इनकी आज्ञानुसार ही उसने इन्हें घोड़ा गाड़ी में बैठाकर उसी दिन रात्रि को वृन्दावन पहुँचा दिया था।
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इनके सम्बन्ध की भी दो-एक घटना सुनिये- सुनते हैं कि एक बार कोई दिग्विजयी पण्डित दिग्विजयी की इच्छा से वृन्दावन में आया। श्री रूप तथा सनातन जी ने तो उससे बिना शास्त्रार्थ किये ही विजय पत्र लिख दिया। किन्तु श्री जीवगोस्वामी उससे भिड़ गये और उसे परास्त करके ही छोडा।
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इस समाचार को सुनकर श्रीरूप गोस्वामी ने इन्हें डाँटा और यहाँ तक कह दिया– ‘जो वैष्णव दूसरों को मान नहीं देना जानता, वह सच्चा वैष्णव ही नहीं। हमें जय-पराजय से क्या ? तुम जय की इच्छा से उससे भिड़े पड़े, इसलिये अब हमारे सामने मत आना।’ इससे इन्हें अत्यन्त ही दु:ख हुआ और ये अनशन करके यमुना-किनारे जा बैठे।
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श्री सनातन जी ने जब यह समाचार सुना तो उन्होंने रूप गोस्वामी के पास आकर पूछा– ‘वैष्णवों को जीव के ऊपर दया करनी चाहिये अथवा अदया।’ श्रीरूप जी ने कहा– यह तो सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि ‘वैष्णव को जीवमात्र के प्रति दया के भाव प्रदर्शित करने चाहिये।’ बस, इतना सुनते ही सनातन जी ने जीवगोस्वामी जी को उनके पैरों में पड़ने का संकेत किया।
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जीवगोस्वामी अधीर होकर उनके पैरों में गिर पड़े और अपने अपराध को स्मरण करके बालकों की भाँति फूट-फूटकर रुदन करने लगे। श्री रूपजी का हृदय भर आया, उन्होंने इन्हें हृदय से लगाया और इनके अपराध को क्षमा कर दिया।
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सुनते हैं परमभक्ता मीराबाई भी इनसे मिली थीं। उन दिनों ये एकान्त में वास करते थे और स्त्रियों को इनके आश्रम में जाने की मनाही थी। जब मीराबाई ने इनसे मिलने की इच्छा प्रकट की और उन्हें उत्तर मिला कि वे स्त्रियों से नहीं मिलते, तब मीराबाईजी ने सन्देश पठाया– ‘वृन्दावन तो बांकेविहारी का अन्त:पुर है। इसमें गोपिकाओं के सिवा किसी दूसर को प्रवेश नहीं। ये विहारी जी के नये पट्टीदार पुरुष और कहाँ से आ बसे, इन्हें किसी दूसरे स्थान की खोज करनी चाहिये।’
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इस बात से इन्हें परम प्रसन्नता हुई और ये मीराबाई जी से बड़े प्रेम से मिले। इन्होंने एक योग्य आचार्य की भाँति भक्ति-मार्ग का खूब प्रचार किया। अपने पितृव्यों की भाँति इन्होंने भी बहुत से ग्रन्थ बनाये। कृष्णदास गोस्वामी ने इन तीनों के ही गन्थों की संख्या चार लाख बतायी है। यहाँ ग्रन्थ से तात्पर्य अनुष्टुप छन्द या एक श्लोक से है, पुस्तक से नहीं।
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श्रीरूप के बनाये हुए सब एक लक्ष ग्रन्थ या श्लोक बताये जाते हैं। सब पुस्तकों में इतने श्लोक हो सकते हैं। श्री जीवगोस्वामी के बनाये हुए नीचे लिखे ग्रन्थ मिलते हैं– श्रीभागवत षटसन्दर्भ, वैष्णवतोषिणी, लघुतोषिणी और गोपालचम्पू। इनके वैकुण्ठवास की ठीक-ठीक तिथि या संवत का पता हमें किसी भी ग्रन्थ से नहीं चला।
(क्रमशः)
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