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*प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे श्रृंगार ।*
*दादू आतम रत नहीं, क्यों मानैं भरतार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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रज्जब देखैं देखते, दृग दोयज१ हरि चन्द ।
भेष भरम भासै नहीं, जे नैना मधि मन्द ॥२१॥
हम देखते हैं द्वितीया१ के दिन सुन्दर भेष वालों को चन्द्रमा नहीं दीखता, जिसके नेत्र अच्छे होते हैं, वे ही चन्द्रमा को देखते हैं । वैसे ही यदि ज्ञान नेत्र मंद हैं तो उसको भेष से हरि का दर्शन नहीं होता, भेष तो भ्रम रूप है ।
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मन मयंक१ की गहन२ गति, जुगति ज्योतिग३ हु जान ।
देह दशा४ देखै नहीं, छाड़ हु खैंचा तान ॥२२॥
चन्द्रमा१ की चाल वा ग्रहण२ की अवस्था को ज्योतिषी३ विद्या बल रूप युक्ति से ही जानता है, ज्योतिषी का भेष बनाने से नहीं जान सकता । वैसे ही मन की चाल शरीर की अवस्था४ विशेष से अर्थात भेष से कोई भी नहीं जान सकता । अत: भेष सम्बंधी खैंचातान छोड़ कर भजन करो ।
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आंखों अन्ध अज्ञान गति२, काजल तिलक बनाय ।
रज्जब रामति१ राम का, दर्शन किया न जाय ॥२३॥
आंखों से अंधा मानव काजल लगाने से ईश्वर लीला१ रूप सृष्टि के पदार्थ नहीं देख सकता, वैसे ही अज्ञानी मानव तिलक लगाना रूप चेष्टा२ से राम का दर्शन नहीं कर सकता ।
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भगवंत भजन बिन कुछ नहीं, भेष भरम दे नाँखि१ ।
रज्जब लखै न गहन२ गति३, अंजन के बल आंखि ॥२४॥
भगवान के भजन बिना भेष कुछ महत्त्व की वस्तु नहीं है, भ्रम रूप है अत: भेष का आग्रह छोड़१ देना चाहिये । जैसे आंखें अंजन के बल से दुर्गम२ वस्तु को देखने की चेष्टा३ में सफल नहीं होती, वैसे ही भेष से भगवान को नहीं देख सकते ।
(क्रमशः)
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