गुरुवार, 26 नवंबर 2020

= *स्वांग का अंग १३२(१७/२०)* =

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*दादू नाना भेष बनाइ कर, आपा देख दिखाइ ।*
*दादू दूजा दूर कर, साहिब सौं ल्यो लाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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पीव१ जीव बाँने२ दिये, देही३ दर्शन४ देख ।
रज्जब भीड़ी५ किये के, राखे किसकी रेख६ ॥१७॥
देख, प्रभु१ ने जीव को दर्शनीय४ शरीर३ रूप भेष२ दिया है और अपने बनाये हुए जीवों के साथी५ है, फिर तू किसका भेष रूप चिन्ह६ रखता है ?
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पट्टा पाया प्राणि तब, जब वपु बांना१ नाँहिं ।
अब विडंब२ का परि करै, समझ रह्या मन माँहिं ॥१८॥
प्राणी ने जीविका रूप पट्टा तो तब ही प्राप्त कर लिया था जब शरीर पर भेष१ नहीं था, अत: हमारा मन तो रहस्य को समझ कर भीतर प्रभु चिन्तन में ही स्थिर रहता है, अब ढोंग२ किस लिये करेगा ?
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सर्प स्वांग१ स्रक२ को गया, बिन पंखों परकाश३ ।
त्यों रज्जब राम रटे४ बिना, बाँने५ के विश्वास ॥१९॥
पंख प्रकट३ हुए बिना कौन सर्प अपने रंग रूप भेष१ से चन्दन२ पर गया है ? अर्थात कोई नहीं गया । वैसे ही राम का चिन्तन४ करे बिना भेष५ के विश्वास से राम के पास कोई नहीं जा सकता ।
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रज्जब जीव जल बूंद सम, षट् दर्शन रंग सान१ ।
ब्रह्म व्योम पहुंचे नहीं, बिना भजन बिन भान२ ॥२०॥
जीव जल बिंदु के समान है, जैसे जल बिंदु में रंग मिला१ देने से वह बिना सूर्य२ के आकाश में नहीं जा सकती, वैसे ही जीव-जोगी, जंगमादि षट् भेष धारियों के भेषों मे मिलने पर भी ब्रह्म चिंतन बिना ब्रह्म को प्राप्त नहीं होता ।
(क्रमशः)

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