गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

*यूं नर नारि करैं व्रत यावत२*

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*दादू सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सकल सिरमौर ।*
*जिहिं के हिरदै हरि बसै, दूजा नाहीं और ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*डौंडि फिरे इक लौंडि बनिक्क हु,*
*मारि हुती अन१ खाय न जागी ।*
*भूपति के ढिग ल्याय दियो व्रत,*
*बैठ विमान सुरग्ग हि भागी ॥*
*देख प्रभाव हि भूप विचारत,*
*या दिन अन्न भखे सु अभागी ।*
*यूं नर नारि करैं व्रत यावत२,*
*जाय पूरी सुरगापुर लागी ॥७५॥*
नगर में डौंडी फरने पर ज्ञात हुआ कि एक बनियाँ की दासी को गत दिन बनियाँ ने किसी कारण से पीटा था इससे उसने अन्न नहीं खाया और चिन्ता वश रोते हुए सारी रात्रि जगती रही । इससे उसका जागरण भी हो गया । उसको राजा के पास लाये । राजा के कहने पर उसने अपने उक्त व्रत का फल अप्सरा को दे दिया । देते ही वह विमान पर बैठकर स्वर्ग को भाग गई ।
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राजा एकादशी व्रत का ऐसा प्रभाव देखकर विचारने लगे, इस एकादशी के दिन अन्न खाता है वह अभागा ही है । राजा ने अपनी पुरी में घोषणा करा दी – सब नर नारियों को एकादशी व्रत करना होगा । नहीं करने पर सरकार दण्ड देगी । इससे पुरी के जितने२ नर नारी थे वे सभी व्रत करने लगे और उस व्रत के प्रभाव से उनकी पुरी स्वर्ग के समीप लग गई अर्थात् पुरी के सभी नर नारी स्वर्ग सुख के अधिकारी हो गये । नियम पूर्वक विधि सहित एकादशी व्रत करता है, उसके घर में यमदूत नहीं जा सकते ।
इससे यमराज ने ब्रह्मा से कहा – रुक्मांगद की प्रजा अमर हो रही है । तब ब्रह्मा ने एक परम सुन्दरी मोहिनी स्त्री बनाकर पृथ्वी पर भेजी । उसे देखकर रुक्मांगद मुग्ध हो गये । उसने राजा को इस शर्त पर पति बनाना स्वीकार किया कि – मैं कहूंगी वह आप को स्वीकार करना होगा । राजा ने उसकी बात मान ली । एकादशी आने पर मोहिनी ने कहा – आप व्रत न करें । राजा सुनते ही सन्न रह गये, फिर बोले – ‘रानी ! तुम कहो तो मैं अपने प्राण भी दे सकता हूँ किन्तु भगवान् नारायण का एकादशी व्रत मैं नहीं छोड़ सकता । इसके बदले में तुम और कुछ माँग लो ।
मोहिनी बोली – व्रत नहीं छोड़ो तो अपने हाथ से पुत्र धर्मांगद का शिर काट कर मुझे दे दो । पिता को संकट में देखकर पुत्र ने कहा – पिताजी संकोच न करें अवश्य मेरा मस्तक काट कर मोहिनी को दे दें । धर्मांगद की माता सन्ध्यावली ने भी पुत्र की बात का समर्थन किया । जब राजा पुत्र का मस्तक काटने लगे तब सहसा वहां हरि प्रकट हो गये और रुक्मांगद आदि को दर्शन देकर अपने धाम में भेज दिया ।
(क्रमशः)

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