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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ३/७)*
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*मांही तैं मुझ को कहै, अन्तरजामी आप ।*
*दादू दूजा धंध है, साचा मेरा जाप ॥३॥*
स्वयं अन्तर्यामी परमात्मा जीवों के अन्तःकरण में स्थित होकर जीवों को प्रेरणा देते हैं कि मेरा चिन्तन ही कल्याण को देने वाला है । अन्य सब तो निष्फल है । क्योंकि मिथ्या होने से । श्रुति में कहा है कि-
वह अकेला देव सब भूतों में गुप्त रूप से स्थित तथा सब भूतों का अन्तरात्मा कर्मों का अध्यक्ष एवं सर्वभूतों का अधिष्ठान जो केवल निर्गुण आत्मा है, वह साक्षी कहलाता है ।
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*॥ कर्त्ता साक्षीभूत ॥*
*करता है सो करेगा, दादू साक्षीभूत ।*
*कौतिकहारा ह्वै रह्या, अणकर्ता अवधूत ॥४॥*
नाम रूप से व्याकृत इस जगत् का सर्वशक्तिसंपन्न परमात्मा ही कारण हैं । वह अपनी माया शक्ति द्वारा अपनी सत्ता मात्र से इस जगत् को बनाता है । परन्तु यह जगत् रचना रूपी कार्य उस परमात्मा का एक खेल है । क्योंकि वह इस जगत् रचना के कर्तृत्व धर्म से लिपायमान नहीं होता किन्तु साक्षी की तरह रहता है । इसलिये वह कर्ता हुआ भी अकर्ता ही है । अद्वैतपञ्चरत्न में लिखा है कि-
“सत्य ज्ञान रूप इस आत्मा में अज्ञान के कारण ही यह मिथ्या विश्व प्रतीत हो रहा है । जैसे निद्रा दोष के कारण ही आत्मा में मिथ्या स्वप्न की प्रतीति होती है । वह तो शुद्ध पूर्ण नित्य एक शिव स्वरूप है । यह बाह्य प्रतीत होने वाला जगत् कुछ नहीं है । क्योंकि माया से कल्पित है । अतः ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । जो कुछ है वह ब्रह्म ही है । जैसे दर्पण में प्रतिविम्बित वस्तु मिथ्या ही है, ऐसे अद्वैत ब्रह्म में मिथ्या कल्पित जगत् की अज्ञान से प्रतीति हो रही है । परमात्मा नट की तरह खेल रहा है । वह कर्तृत्व भोक्तृत्व सब धर्मों से अतीत है, साक्षी है । जैसे अवधूत महात्मा कर्म करता हुआ भी कर्म और उनके फलों से मुक्त ही रहता हैं ।”
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*दादू राजस कर उत्पत्ति करै, सात्विक कर प्रतिपाल ।*
*तामस कर परलै करै, निर्गुण कौतिकहार ॥५॥*
सत्व, रज, तम यह तीन गुण हैं । परमात्मा रजोगुण प्रधान माया से जगत् की रचना करते हैं और सत्वगुण प्रधान माया से जगत् का पालन और तमोगुण प्रधान माया से प्रलय करते हैं और अपने निर्गुण स्वरूप से इस प्रपञ्च के दृष्टा रहते हैं । निर्वाणमंजरी में लिखा है कि-
“जो अन्दर बाहर व्यापक शुद्ध एक सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं उसी से इस स्थूल सूक्ष्म प्रपञ्च का भान(प्रतीति) हो रही है और उसी से यह पैदा होता है । वही मैं शिव स्वरूप हूँ ।”
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*दादू ब्रह्म जीव हरि आत्मा, खेलैं गोपी कान्ह ।*
*सकल निरन्तर भर रह्या, साक्षीभूत सुजान ॥६॥*
हे सुजान साधक ! ब्रह्म ईश्वर जीव आत्मा परमात्मा इन नामों से ब्रह्म का ही व्यपदेश समझना । इनमें कोई भेद नहीं है । क्योंकि नामभेद से नामी का भरद नहीं होता । जो प्रतीयान भेद है, वह माया से कल्पित होने से मिथ्या है । वह परभी चराचर जगत् में व्यापक है तथा अवतारादिक के द्वारा कृष्ण, राम आदि नामों को धारण करके गोपीस्वरूप अपने भक्तों के साथ क्रीडा करते रहते हैं । शिवानन्दलहरी में लिखा है कि-
इस संपूर्ण जगत् को भगवान् अपनी क्रीडा के लिये रचते हैं अपनी माया से । अतः सब जीव उस भगवान् के क्रीडा मृग हैं । हे प्रभो मैंने आपकी प्रसन्नता के लिये जो कर्म किये हैं उससे आप प्रसन्न हो जाइये । निश्चित ही मेरे किये कर्म आपके कुतूहल के साधन हैं । मैं आपका हूँ अतः हे पशुपते ! मेरी रक्षा करना यह आप का कर्तव्य है ।
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*॥ स्वकीय मित्र शत्रुता ॥*
*दादू जामण मरणा सान कर, यहु पिंड उपाया ।*
*साँई दिया जीव को, ले जग में आया ॥७॥*
परमात्मा ने इस शरीर को जन्मने मरने वाला बनाया है । इसीलिये यह बार-बार जन्मता-मरता रहता है । इस शरीर के अध्यास को लेकर जीवात्मा प्राणियों से शत्रु मित्र भाव बनाता है । किन्तु यह नहीं जानता कि यह शरीर तो क्षण में ही नष्ट होने वाला है और अपने स्वरूप का अनुसंधान भी नहीं करता कि मैं कौन हूँ ? अतः अपने आत्मा का अनुसंधान करो कि मैं देह नहीं हूँ । किन्तु सच्चिदानन्द स्वरूप हूँ । ऐसा जान कर किसी से भी शत्रु-मित्र भाव को मत करो । सर्ववेदान्तसार में लिखा है कि-
“हे जीव ! तू देह इन्द्रियाँ प्राण, वायु, मन, बुद्धि, चित्त, तथा अहंकाररूप नहीं है । किन्तु इन सब का अधिष्ठानभूत शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म है । ऐसा जान ।”
(क्रमशः)
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