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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ अबिहड़ कौ अंग ३७ - १/५)*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*दादू संगी सोई कीजिये, जे कलि अजरावर होइ ।*
*ना वह मरै, न बीछूटै, ना दुख व्यापै कोइ ॥२॥*
सर्व कालों में अजर अमर एकरस परमात्मा ही सबका सच्चा संगी होता है । अतः उसकी ही उपासना करनी चाहिये । वह कभी भी मरता नहीं क्योंकि वह नित्य है और उसके वियोग की भी कभी संभावना नहीं हो सकती क्योंकि वह सर्वव्यापक है ।
कभी सुख दुःख भी उसको व्याप्त नहीं कर सकते क्योंकि वह निर्विकार हैं । ज्ञान वही है जो इन्द्रियों को शान्त करें । ज्ञेय भी वह ही है जो उपनिषदों द्वारा निश्चित किया गया है । वे ही धन्य हैं जो परमार्थ का निश्चय कर रहे हैं । शेष तो इस संसार में व्यर्थ ही भ्रम जाल में पड़े हैं ।
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*दादू संगी सोई कीजिये, जे सुस्थिर इहि संसार ।*
*ना वह खिरै, न हम खपैं, ऐसा लेहु विचार ॥३॥*
बार-बार विचार कर उसी का संग करो जो निश्चल अव्यय निर्विकार हो । क्योंकि उसके संग से हम भी तद्रूपता को प्राप्त करके अजर अमर भाव को प्राप्त हो जायगें । यह ही उपासना का फल है कि उपासक उपास्य रूप हो जाता है ।
आत्मानुसंधान में लिखा है कि- मैं अच्युत, अनन्त, अतर्क्य, अज, अब्रण, अकाम, असंग, अभय हूं । क्योंकि ब्रह्म भी ऐसा ही है और उसकी उपासना से मैं भी वैसा ही हो गया ।
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*दादू संगी सोई कीजिये, सुख दुख का साथी ।*
*दादू जीवन-मरण का, सो सदा संगाती ॥४॥*
जो सर्वदा सुख दुःख में सहायक होता हैं । उसी को अपना साथी बनावो । जो जीवन मरण में सदा रक्षा करता है । भगवान् भक्तों को कभी नहीं त्यागते । कोई भक्त भगवान् से प्रार्थना कर रहा है कि-
मैंने कभी भी पुण्य कर्म नहीं किये अतः बहुत बड़ा पापी हूं और दुःख के समुद्रों में पड़ा हुआ हूं जहां सुख का लवलेश भी नहीं हैं तथा मृत्यु ने मुझे हाथ से पकड़ रखा हैं । अतः आप मेरी मृत्यु से डरे हुए की आगे पीछे मध्य में सब प्रकार से रक्षा कीजिये ।
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*दादू संगी सोई कीजिये, जे कबहूँ पलट न जाइ ।*
*आदि अंत बिहड़ै नही, ता सन यहु मन लाइ ॥५॥*
जो आदि अन्त मध्य से रहित हैं । सब अवस्थाओं में एक रस रहता है । सृष्टि के आरम्भ से प्रलय पर्यन्त कभी भी भक्तों को नहीं छोड़ता । उसी भगवान् में अपने मन को लीन करो । अन्यथा संसार का भ्रमण नहीं छूटेगा ।
वेदपादस्तव में लिखा है कि- जो आत्मा पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर नीचे ऊपर मध्य में सदा रहने वाला हैं । मूढ, उस अपने अन्तस्थ परमात्मा को न जान कर इस संसार में पर्वतों की गुहा और खड्डों में घूम रहे हैं ।
(क्रमशः)
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