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*गाइ गाइ रस लीन भये हैं, कछू न मांगैं संत जना ।*
*और अनेक देहु दत्त आगै, आन न भावै राम बिना ॥*
*इक टग ध्यान रहैं ल्यौ लागे, छाकि परे हरि रस पीवैं ।*
*दादू मगन रहैं रस माते, ऐसे हरि के जन जीवैं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २७२)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(४)
*ईश्वर-लाभ के अनन्त मार्ग । भक्तियोग ही युगधर्म है*
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श्रीरामकृष्ण - देखो, अमृत-समुद्र में जाने के अनन्त मार्ग हैं । किसी तरह इस सागर में पड़े कि बस, हुआ । सोचो, अमृत का एक कुण्ड है । किसी तरह मुँह में उस अमृत के पड़ने से ही अमर होते हो, तो चाहे तुम खुद कूदकर उसमें गिरो या सीढ़ियों से धीरे-धीरे उतरकर कुछ पीयो, या कोई दूसरा धक्का मारकर तुम्हें कुण्ड में डाल दे, फल एक ही है । अमृत का कुछ स्वाद लेने से ही अमर हो जाओगे ।
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"मार्ग अनन्त हैं । ज्ञान, कर्म, भक्ति, चाहे जिस मार्ग से जाओ, आन्तरिक होने पर ईश्वर को अवश्य प्राप्त करोगे । संक्षेप में योग तीन प्रकार के हैं । ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग ।
"ज्ञानयोग में ज्ञानी ब्रह्म को जानना चाहता है । नेति-नेति विचार करता है । ब्रह्म सत्य और संसार मिथ्या है, यह विचार करता है । विचार की समाप्ति जहाँ है, वहाँ समाधि होती है, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है ।
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“कर्मयोग है, कर्म करके ईश्वर पर मन लगाये रहना । अनासक्त होकर प्राणायाम, ध्यान-धारणादि कर्मयोग है । संसारी अगर अनासक्त होकर ईश्वर को फल समर्पित कर दे, उन पर भक्ति रखकर संसार का कर्म करे तो वह भी कर्मयोग है । ईश्वर को फल का समर्पण करके पूजा, जप आदि कर्म करना, यह भी कर्मयोग है । ईश्वर-लाभ करना ही कर्मयोग का उद्देश्य है ।
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"भक्तियोग है ईश्वर के नाम-गुणों का कीर्तन करके उन पर पूरा मन लगाना । कलिकाल के लिए भक्तियोग का मार्ग सीधा है । युगधर्म भी यही है ।
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"कर्मयोग बड़ा कठिन है । पहले ही कहा जा चुका है कि समय कहाँ है ? शास्त्रों में जो सब कर्म करने के लिए कहा है, उसका समय कहाँ है ? कलिकाल में इधर आयु कम है । उस पर अनासक्त होकर फल की कामना न करके कर्म करना बड़ा कठिन है । ईश्वर को बिना पाये कोई अनासक्त नहीं हो सकता । तुम नहीं जानते, परन्तु कहीं न कहीं से आसक्ति आ ही जाती है ।
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“ज्ञानयोग भी इस युग के लिए बड़ा कठिन है । एक तो जीवों के प्राण अत्रगत हो रहे हैं, तिस पर आयु भी कम है; उधर देहबुद्धि किसी तरह जाती नहीं और देहबुद्धि के गये बिना ज्ञान होने का नहीं । ज्ञानी कहता है, मैं ही वह ब्रह्म हूँ । न मैं शरीर हूँ, न भूख हूँ, न तृष्णा हूँ, न रोग हूँ, न शोक हूँ; जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, इन सब से परे हूँ । यदि रोग, शोक, सुख, दुःख, इन सब का बोध रहा, तो तुम ज्ञानी फिर कैसे हो सकोगे ? इधर हाथ काँटों से छिद रहे हैं, घर घर खून बह रहा है, खूब पीड़ा होती है, फिर भी कहता है, 'कहाँ ? हाथ तो कटा ही नहीं ! मेरा क्या हुआ है ?"
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"इसीलिए इस युग में भक्तियोग है । इससे दूसरे मार्गों की अपेक्षा ईश्वर के पास पहुँचने में सुगमता है । ज्ञानयोग या कर्मयोग अथवा दूसरे मार्गों से भी लोग ईश्वर के पास पहुँच सकते हैं, परन्तु इन सब रास्तों से मंजिल पूरी करना बड़ा कठिन है ।
"इस युग के लिए भक्तियोग है । इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एक जगह जायगा, ज्ञानी या कर्मी दूसरी जगह । इसका तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मज्ञान चाहते हैं, वे अगर भक्ति के मार्ग से चलें तो भी वही ज्ञान उन्हें होगा । भक्तवत्सल अगर चाहेंगे तो वह भी दे सकते हैं ।
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"भक्त ईश्वर का साकार-रूप देखना चाहता है, उनके साथ बातचीत करना चाहता है - वह बहुधा ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता । परन्तु ईश्वर इच्छामय हैं । उनकी अगर इच्छा हो तो वे भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी कर सकते हैं । भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी । अगर कोई एक बार कलकत्ता आ जाय, तो किले का मैदान, सोसायटी(Asiatic Society's Museum), सब उसे देखने को मिल जायेगा ।
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“पर बात तो यह है कि कलकत्ता किस तरह आया जाय ?
"संसार की माँ को पा जाने पर ज्ञान भी पाता है और भक्ति भी । भाव-समाधि के होने पर रूप-दर्शन होता है और निर्विकल्प समाधि के होने पर अखण्ड सच्चिदानन्द दर्शन । तब अहं, नाम और रूप नहीं रह जाते ।
"भक्त कहता है, 'माँ, सकाम कर्मों से मुझे बड़ा भय लगता है । उस कर्म में कामना है । उस कर्म के करने से फल भोगना ही पड़ेगा ।
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तिस पर अनासक्त कर्म करना बड़ा कठिन है । उधर सकाम कर्म करूँगा, तो तुम्हें भूल जाऊँगा । चलो, ऐसे कर्म से मुझे अत्यन्त घृणा है । जब तक तुम्हें न पाऊँ तब तक कर्म घटते जायँ । जितना रह जायगा, उतने को अनासक्त होकर कर सकूँ । उसके साथ तुम पर मेरी भक्ति भी बढ़ती जाय । और जब तक तुम्हें न पाऊँ तब तक किसी नये कर्म में न फँसू । जब तुम स्वयं कोई आज्ञा दोगी तब काम करूंगा, अन्यथा नहीं ।’"
(क्रमशः)
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