🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*तहँ दिन दिन अति आनन्द होइ,*
*प्रेम पिलावै आप सोइ ।*
*संगियन सेती रमूं रास,*
*तहँ पूजा अर्चा चरण पास ॥ *
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३६९)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
*परिच्छेद ८५*
*पण्डित शशधर को उपदेश*
(१)
*काली ही ब्रह्म है । ब्रह्म और शक्ति अभेद*
.
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे में जमीन पर बैठे हैं । पास ही शशधर पण्डित हैं । जमीन पर चटाई बिछी है, उस पर श्रीरामकृष्ण, पण्डित शशधर तथा कई भक्त बैठे हैं । कुछ लोग खाली जमीन पर ही बैठे हैं । सुरेन्द्र, बाबूराम, मास्टर, हरीश, लाटू, हाजरा, मणि मल्लिक आदि भक्त भी हैं । श्रीरामकृष्ण पण्डित पद्मलोचन की बात कह रहे हैं । पद्मलोचन बर्दवान महाराज के सभापण्डित थे । दिन का तीसरा पहर है, चार बजे का समय होगा ।
.
आज सोमवार है, ३० जून, १८८४ । छः दिन हो गये, जिस दिन रथयात्रा थी, उस दिन कलकत्ते में पण्डित शशधर के साथ श्रीरामकृष्ण की बातचीत हुई थी । आज पण्डितजी खुद आये हैं । साथ में श्रीयुत भूधर चट्टोपाध्याय और उनके बड़े भाई हैं । कलकत्ते में इन्हीं के मकान पर पण्डित शशधरजी रहते हैं । पण्डितजी ज्ञानमार्गी हैं ।
.
श्रीरामकृष्ण उन्हें समझा रहे हैं - "नित्यता जिनकी है, लीला भी उन्हीं की है - जो अखण्ड सच्चिदानन्द हैं, उन्होंने लीला के लिए अनेक रूपों को धारण किया है ।" भगवत्प्रसंग करते करते श्रीरामकृष्ण बेहोश होते जा रहे हैं । पण्डितजी से कह रहे हैं – “भैया, ब्रह्म सुमेरुवत् अटल और अचल हैं, परन्तु जिसमें न हिलने का भाव है उसमें हिलने का भाव भी है ।"
.
श्रीरामकृष्ण प्रेम और आनन्द से मस्त हो गये हैं । सुन्दर कण्ठ से गाने लगे । एक के बाद दूसरा, इस तरह कई गाने गाये ।
(गीतों का भाव) –
(१) कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शन भी उनके दर्शन नहीं पाते....।
.
(२) मेरी माँ किसी ऐसी-वैसी स्त्री की लड़की नहीं है । उसका नाम लेकर महेश्वर हलाहल पीकर भी बच गये । उसके कटाक्षमात्र से सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं । अनन्त ब्रह्माण्डों को वह अपने पेट में डाली हुई है । उसके चरणों की शरण लेकर देवता संकट से उद्धार पाते हैं । देवों के देव महादेव उसके पैरों के नीचे लोटते हैं ।
.
(३) मेरी माँ में यह इतना ही गुण नहीं है कि वह शिव की सती है, नहीं, काल के काल भी उसे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं । नग्न होकर वह शत्रुओं का संहार करती हैं । महाकाल के हृदय में उसका वास है । अच्छा मन ! कहो तो सही, भला वह कैसी है जो अपने पति के हृदय में भी पाद-प्रहार करती है ! रामप्रसाद कहते हैं ! माता की लीलाएँ समस्त बन्धनों से परे हैं । मन ! सावधानी के साथ प्रयत्न करते रहो, इससे तुम्हारी मति शुद्ध हो जायगी ।
.
(४) यह मैं सुरापान नहीं कर रहा हूँ, काली का नाम लेकर मैं सुधापान करता हूँ । वह सुधा मुझे ऐसी मस्त देती है कि लोग मुझे मतवाला कहते हैं । गुरु के दिये हुए बीज को लेकर, उसमें प्रवृत्ति का मसाला डाल, ज्ञानरूपी कलवार जब शराब खींचता है, तब मेरा मतवाला मन उसका पान करता है । यन्त्रों से भरे हुए मूल मन्त्र का शोधन करके वह 'तारा तारा' कहा करता है । रामप्रसाद कहता है, ऐसी सुरा के पीने से चतुर्वर्गों की प्राप्ति होती है ।
.
(५) श्यामा-धन क्या कभी सब को थोड़े ही मिलता है ? बड़ी आफत है - यह नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों में प्राणों को सौंप देना शिव के लिए भी असाध्य है, तो साधारण जनों की बात ही क्या !
श्रीरामकृष्ण का भावावेश घट रहा है । गाना बन्द हो गया । वे थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे । फिर अपनी छोटी खाट पर जाकर बैठे । पण्डितजी गाना सुनकर मुग्ध हो गये । बड़े ही विनयस्वर में श्रीरामकृष्ण से कहा - क्या और गाना न होगा ?
.
श्रीरामकृष्ण कुछ देर बाद फिर गाने लगे –
(१) श्यामा के चरणरूपी आकाश में मेरे मन की पतंग उड़ रही थी । पाप की हवा के झोंके से वह चक्कर खाकर गिर गयी.....।
(२) अब मुझे एक अच्छा भाव मिल गया है । यह भाव मैंने एक अच्छे भावुक से सीखा है । जिस देश में रात नहीं है, उसी देश का एक आदमी मुझे मिला है । मैं दिन और रात को कुछ नहीं समझता, सन्ध्या को तो मैंने बन्ध्या बना डाला है ।
(३) तुम्हारे अभय चरणों में मैने प्राणों को समर्पण कर दिया है । अब मैंने यम की चिन्ता नही रखी, न मुझे अब उसका कोई भय ही है । अपनी शिर-शिखा में मैंने काली-नाम के महामन्त्र की ग्रन्थि लगा ली है । भव की हाट में देह बेचकर मैं श्रीदुर्गा नाम खरीद लाया हूँ ।
.
'श्रीदुर्गा-नाम खरीद लाया हूँ,’ इस वाक्य को सुनकर पण्डितजी की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी । श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं –
(१) मैंने अपने ह्रदय में काली-नाम के कल्पतरू को रोपित कर लिया है । अब की बार जब यमराज आयेंगे, तब उन्हें हृदय खोलकर दिखाऊँगा, इसीलिए बैठा हुआ हूँ । देह के भीतर छः दुर्जन हैं, उन्हें मैंने घर से निकाल दिया है । रामप्रसाद कहते हैं, श्रीदुर्गा का नाम लेकर मैंने पहले ही से यात्रारम्भ कर दिया है ।
.
(२) मन ! अपने में ही रहना, किसी दूसरे के घर न जाना । जो कुछ तू चाहेगा, वह तुझे बैठे ही बैठे मिल जायगा । तू अपने अन्तःपुर में ही उसकी तलाश कर ।
श्रीरामकृष्ण गाकर बतला रहे हैं कि मुक्ति की अपेक्षा भक्ति बड़ी है ।
(गाना) "मुझे मुक्ति देते हुए कष्ट नहीं होता, परन्तु भक्ति देते बड़ी तकलीफ होती है । जिसे मेरी भक्ति मिलती है, वह सेवा का अधिकारी हो जाता है । फिर उसे कौन पा सकता है ! वह त्रिलोकजयी हो जाता है । शुद्धा भक्ति एकमात्र वृन्दावन में है, गोपियों के सिवा किसी दूसरे को उसका ज्ञान नहीं । भक्ति ही के कारण, नन्द के यहाँ, उन्हें पिता मानकर, मैं उनकी बाधाओं को अपने सिर लेता हूँ ।"
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें