शनिवार, 22 मई 2021

*ईश्वर के पादपद्मों में मग्न हो जाओ*

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*दादू पाणी मांहीं पैसि करि, देखै दृष्टि उघारि ।*
*जलाबिंब सब भरि रह्या, ऐसा ब्रह्म विचारि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"सच है कि इस तरह का आदमी पण्डित नहीं होता; परन्तु इसलिए यह न सोच लेना कि उसके ज्ञान में कुछ कमी है । कहीं किताबें पढ़कर भी ज्ञान होता है ? जिसे आदेश मिला है उसके ज्ञान का अन्त नहीं है । वह ज्ञान ईश्वर के पास से आता है । वह कभी चुकता नहीं । उस देश में धान नापते समय एक आदमी नापता है और दूसरा राशि ठेलता जाता है ।
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उसी तरह जो आदेश पाता है, वह जितनी ही लोक-शिक्षा देता रहता है, माँ उसकी ज्ञान की राशि पूरी करती जाती है; उस ज्ञान का अन्त नहीं होता । मेरी अवस्था इसी प्रकार की है ।
"माँ यदि एक बार भी कृपा की दृष्टि फेर दें तो क्या फिर ज्ञान का अभाव रह सकता है ? इसीलिए पूछ रहा हूँ, तुम्हें कोई आदेश मिला है या नहीं ।"
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हाजरा – हाँ, आदेश अवश्य मिला होगा । क्यों महाशय ?
पण्डितजी - नहीं, आदेश तो विशेष कुछ नहीं मिला ।
गृहस्वामी - आदेश तो जरूर नहीं मिला, परन्तु कर्तव्य के विचार से लेक्चर देते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - जिसने आदेश नहीं पाया, उसके लेक्चर से क्या होगा ?
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"एक(ब्राह्म) ने लेक्चर देते हुए कहा था, 'मैं पहले खूब शराब पीता था, ऐसा करता था, वैसा करता था ।' यह बात सुनकर लोग आपस में बतलाने लगे – ‘साला कहता क्या है, शराब पीता था !’ इस तरह कहने से उसे विपरीत फल मिला । इसीलिए अच्छा आदमी बिना हुए लेक्चर से कोई उपकार नहीं होता ।
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"बरीसाल निवासी किसी सरकारी अफसर ने कहा था, 'महाराज, आप प्रचार करना शुरू कर दीजिये, तो मैं भी कमर कसूँ ।' मैंने कहा, 'अजी, एक कहानी सुनो । उस देश में हालदारपुकुर नाम का एक तालाब है । जितने आदमी थे, सब उसके किनारे पर दिशा-फरागत को जाते थे । सुबह को जो लोग तालाब पर जाते वे गाली-गलोज की बौछारों से उनके भूत उतार देते थे । परन्तु गालियों से कुछ फल न होता था । उसके दूसरे ही दिन सुबह फिर वही घटना होती; लोग फिर दिशा-फरागत को आते । कुछ दिनों बाद कम्पनी से एक चपरासी आया । वह तालाब के पास नोटिस चिपका गया । बस वहाँ टट्टी जाना बिलकुल बन्द हो गया !"
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"इसीलिए कहता हूँ, ऐरे-गैरे के लेक्चर से कुछ फल नहीं होता । चपरासी के रहने पर ही लोग बात सुनेंगे । ईश्वर का आदेश न रहा, तो लोक-शिक्षा नहीं होती । जो लोक-शिक्षा देगा, उसमें बड़ी शक्ति चाहिए । कलकत्ते में बहुत से हनुमानपुरी* हैं, उनके साथ तुम्हें लड़ना होगा । (*एक विख्यात पहलवान)
"ये लोग (श्रीरामकृष्ण के चारों ओर जो सब भक्त बैठे हुए थे) तो अभी पट्ठे हैं ।
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"चैतन्यदेव अवतार थे । वे जो कुछ कर गये, कहो भला उसका अब कितना बचा हुआ है ? और जिसने आदेश नहीं पाया, उसके लेक्चर से क्या उपकार होगा ?
"इसीलिए कहता हूँ, ईश्वर के पादपद्मों में मग्न हो जाओ ।"
यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गा रहे हैं –
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"ऐ मेरे मन, तू रूप के सागर में डूब जा । जब तू तलातल और पाताल खोजेगा, तभी तुझे प्रेम-रत्न-धन प्राप्त होगा ।
“इस समुद्र में डूबने से वह मरता नहीं, यह अमृत का समुद्र है ।
"मैंने नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर रस के समुद्र हैं, तू इस समुद्र में डुबकी लगायेगा या नहीं, बोल ? अच्छा सोच, एक खप्पर में रस है, और तू मक्खी बन गया है । तो तू कहाँ बैठकर रस पीयेगा ? -- बोला' ...
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नरेन्द्र ने कहा, 'मैं खप्पर के किनारे बैठकर मुँह बढ़ाकर पीऊँगा, क्योंकि अधिक बढ़ने से डूब जाऊँगा ।' तब मैंने कहा, 'भैया, यह सच्चिदानन्दसागर है, इसमें मृत्यु का भय नहीं है । यह सागर अमृत का सागर है । जिन्हें ज्ञान नहीं, वे ही ऐसा कहते हैं कि भक्ति और प्रेम की बढ़ाचढ़ी अच्छी नहीं । परन्तु ईश्वर-प्रेम की क्या कहीं बढ़ाचढ़ी होती है ?' इसीलिए तुमसे कहता हूँ, सच्चिदानन्द-सागर में मग्न हो जाओ ।
"ईश्वर-लाभ हो जाने पर फिर क्या चिन्ता है ? तब आदेश भी होगा और लोक-शिक्षा भी होगी ।”
(क्रमशः)

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