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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ७३/७६*
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सांच न समझै दोजगी८, तजै न लालच लोभ ।
कहि जगजीवन रांमजी, ते क्यूं पावैं सोभ९ ॥७३॥
{८. दोजगी=नारकीय जीव(पापी)} (९. सोभ=समाज में सम्मानित स्थान)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अधर्मी जन सत्य की कीमत नहीं जानते हैं वे कभी लालच लोभ नहीं छोड़ते हैं ऐसे जीव समाज में कैसे सम्मानित हो सकते हैं ।
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दमड़ी१० चमड़ी११ दूरि करि, चित्त मंहि राखै नांम ।
कहि जगजीवन चाह तजि, कम खाल(?) कहि रांम ॥७४॥
(१०. दमड़ी=धन-सम्पत्ति) (११. चमड़ी=रूपवती नारी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धन रूप सब छोड़कर मन में राम स्मरण रखें सारी आशा तृष्णा छोड़कर सिर्फ स्मरण ही करें ।
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कम खाल(?) क्यूं जानिये, चाह नहीं चित मांहि ।
कहि जगजीवन रांम रत, हरि तजि बोलै नांहि ॥७५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव कृशकाय प्रभु वियोग में है और चित में कोइ तृष्णा न शेष रहे । वह राममय हो और ईश्वर के नाम के सिवाय कुछ भी न बोलै तब ही जीवन कल्याण है ।
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साह कंवर अंबरस ठग्यौ, गनिक ठगी हरि छागि ।
कहि जगजीवन रांमजी, बेश्रम१ नांही लाज ॥७६॥
१. बेश्रम=बेशर्म=निर्लज्ज ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सतवादी है उन्हें तो स्वाद ने छला है और हरि भक्तों को सौन्दर्य ने संत कहते हैं कि हे ईश्वर इन्हें शर्म ही नहीं आयी ये अपना जीवन यूं ही खो चले ।
(क्रमशः)
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