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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ६९/७२*
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कहि जगजीवन रांमजी, नाहर३ की गति मांहि ।
मन मैला तन ऊजला, बग वृति४ सोभै नांहि ॥६९॥
(३. नाहर=सिंह) {४. वगवृति=वकवृत्ति(वगुले के समान स्वभाव वाला)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु शेर दिल जीवों को मन मैला व देह ही धुली हो ऐसा नहीं करना चाहिए दोनों ही उज्जवल हो । चरित्रवान हो । उनका आचरण बगुले जैसा न हो जो सिद्ध पुरुष जैसा आचरण एक टांग पर खड़े हो कर आंख बंद करता है व मौका पाते ही मछली पकड़कर खा जाता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, सुपिनौं सांच समांन ।
सांचा साहिब को परसि, सांच कथैं गुरु ग्यांन ॥७०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह स्वप्न ही सत्य है जिसमें गुरु महाराज के कहे ज्ञान से जीव परमात्मा को मिलता है ।
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उत्तम सुद्ध सरीर हरि, मध्यम मांही बांण५ ।
कहि जगजीवन रांम घरि, कोइ जन करै पिछांण ॥७१॥
(५. मांही बांण=आन्तरिक स्वभाव)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सर्वोत्तम तो शुद्ध देह जिसमें विकार न हो मध्यम जीव प्रवृत्ति है परमात्मा के ऐसे सजीव घर की पहचान कोइ विरला जन ही करता है ।
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प्रीति पसारा६ सों करै, नेक न न्यारा होइ ।
कहि जगजीवन रांम दरि७, बातन बूझै कोइ ॥७२॥
(७. राम दरि=भगवान् के द्वार पर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसने सब और प्रेम का प्रसार किया हो और जो प्रभु से एक क्षण भी पृथक न हो ऐसे जन को भगवान के दर पर कोइ रोक टोक नहीं करता है ।
(क्रमशः)
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