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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ८९/९२*
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जे हरि दाबै१ सांच कूं, ते जुग झूंठा जांणि ।
कहि जगजीवन रांमजी, तुम सौं नहीं पिछांणि ॥८९॥
{१. दाबै=दबावै(छिपावै)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि प्रभु सत्य छिपाते हैं तो यह युग ही असत्य प्रभु तो सदा सत्यरुप में ही जाने जाते हैं ।
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बारह मास चौबीस पख, अडतालीस आदितवार२ ।
फिर फिर आवै एहि हरि, रैणि दिवस एकतार३ ॥९०॥
(२. आदितवार=रविवार) {३. एकतार=निरन्तर(समय की गति से)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बारह मास के चौबीस पक्ष है ओर अड़तालीस रविवार है जबकि रविवार अंग्रेजी वर्ष में बावन कहे है । यह क्रम ही बार बार आता जाता है ।
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कहि जगजीवन हरि भगत, हरि भजि करै बिचार ।
रांम रांम रटि रांम गहि, सबद पिछांणै सार ॥९१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि भक्त हरि भजन का ही विचार करते हैं वे स्मरण कर प्रभु को प्राप्त कर नाम की शक्ति को पहचानते हैं ।
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साध सबद मंहि रांमजी, साध सबद मंहि साध ।
कहि जगजीवन सार सबद की, यहु गति अगम अगाध ॥९२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि साधु शब्द में राम ही होते हैं साधु शब्द में ही साधु निवसते हैं अर्थात वे साधुता का आचरण करते हैं संत कहते हैं कि शब्दों के अर्थ व सार तत्त्व की महिमा अद्भुत है ।
(क्रमशः)
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