शनिवार, 3 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ८५/८८*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ ८५/८८*
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तुचा४ बिलाणी तेज मंहि, असति५ बीलाणै सास ।
तब हरि आनंद ऊपज्या, सु कहि जगजीवनदास ॥८५॥
{४. तुचा=त्वचा=त्वचा(शरीर की)) । ५. असति=अस्थि(हड्डियाँ) ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि त्वचा तो तेज में व अस्थि सांसो में विलय होती है इस स्थिति में ही आनंद है ऐसा संत कहते हैं ।
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कहि जगजीवन धर्यादिक६, क्रित्तिम७ करै न चीति८ ।
रांम कहावै रांम की, यहु हरिमारग नीति ॥८६॥
६. धर्यादिक=धरा(पृथ्वी) आदि पाँच तत्त्व । ७. क्रित्तिम=कृत्रिम(विनाशवान्) । ८. चीति=मन में ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह पृथ्वी भी कभी विनाश की नहीं सोचती है सब सह कर भी सबका भला करती हैयह राम की होकर ही पूजी जाती है । हम इसे माँ कहते हैं ।यह ही प्रभु मार्ग की नीति है ।
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क्रित्तिम रूप सरीर हरि, कहौ क्यौं विसरै तांम ।
क्रिपा तुम्हारी तुम सरणि, नख सिख भरि हरि नांम ॥८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह शरीर तो कृत्रिम है प्रभु आपकी महिमा कैसे भूल सकता है सब कुछ आपका है हम भी आपकी शरण है नख शिख सब हरिनाम का ही स्मरण करें ऐसी कृपा करें ।
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जे* घटि मांहै प्रव्रिति, सोइ प्रकासै जीव ।
कहि जगजीवन रांम रटि, सकति तजैं ते सीव* ॥८८॥
*-*, जिसके मन में जैसे विचार होंगे, उसके मुख से वैसी बातें निकलेंगी । अतः साधक को भगवान् का भजन करते हुए माया-मोह त्याग कर शिव (निरंजन) स्वरूप हो जाना चाहिये ॥८८॥
संतजगजीवन जी कह जीव के मन में जैसी प्रवृत्ति होतीं हैवह वैसा ही दिखता है अतः साधक को भगवान का भजन करते हुये माया मोहत्याग शिव स्वरूप होने का प्रयास करना चाहिए ।
(क्रमशः)

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