शुक्रवार, 4 मार्च 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६६

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
https://www.facebook.com/DADUVANI
भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१६६)*
===============
*१६६. फरोदस्त ताल*
*गावहु मंगलाचार, आज बधावणां ये ।*
*सुपनो देख्यो साँच, पीव घर आवणां ये ॥टेक॥*
*भाव कलश जल प्रेम का, सब सखियन के शीश ।*
*गावत चली बधावणां, जै जै जै जगदीश ॥१॥*
*पदम कोटि रवि झिलमिलै, अंग अंग तेज अनन्त ।*
*विगसि वदन विरहनी मिली, घर आये हरि कंत ॥२॥*
*सुन्दरि सुरति सिंगार कर, सन्मुख परसे पीव ।*
*मो मंदिर मोहन आविया, वारूं तन मन जीव ॥३॥*
*कवल निरन्तर नरहरी, प्रकट भये भगवंत ।*
*जहँ विरहनी गुण वीनवे, खेले फाग बसन्त ॥४॥*
*वर आयो विरहनी मिली, अरस परस सब अंग ।*
*दादू सुन्दरी सुख भया, जुगि जुगि यहु रस रंग ॥५॥*
*इति राग मारू समाप्त ॥७॥पद २४॥*
.
भा.दी०- हे सख्यः ! स्वागतार्थ मङ्गलगीतं गायन्तु । यतोहि स्वप्ने दृष्टः प्रभुर्मम गृहमागतः । गृहागतः प्रभुः सत्यं मया दृष्टः । इन्द्रियवृत्तिस्वरूपाणां सखीनां गमनरूपशिरसि प्रेम- जलपरिपूर्णो भावमय: कलश: स्थापितोऽस्ति । ताश्च सर्वाः सख्य: संमिलिताः सत्यो भगवज्जयगीति गायन्त्यः प्रभु- संमुखमभिगता भवन्ति । अर्थात्सर्वेन्द्रियाणां बुद्धेश्च भगवदाकारकारितावृत्तिर्जाता । तस्य प्रभोस्तेजोमयं स्वरूपं कोटिसूर्यप्रभं प्रकाशते । तस्य प्रभोः प्रत्यङ्गं तेजोभाष्करं भासते । ईदृशो हरियंदा हृदयागारे प्रविष्टस्तदा विरहिण्यो मनोवृत्तयः प्रमुदिताः सत्यः स्वस्वामिनं प्रभुं प्राप्त्यवत्यः । तदाऽन्तःकरणस्य वृत्तिरूपिणी सुन्दरी विरहिणी वदति यन्ममाऽपि हृदयमन्दिरे विश्वविमोहकः प्रभुःसमागच्छेत्, तदा प्रसन्नमुखी सती विरहिणी चित्तवृत्तिः स्वामिना सह संगत्य ब्रह्माकारभूतं स्पर्श विधाय वदति यन्मम मनोमन्दिरे विश्वविप्रोहकः प्रभुः समागतोऽस्ति । अतोऽहं तस्मै शरीरं मनोजीवनश्चय सर्वस्वं समर्पयामि । मम परमेश्वर: प्रभुर्यत्राष्टदलकमले हृदये सर्वदा विराजमानो दृश्यते तत्रैव स्थिता विरहिणी वृत्तिस्तदुणं गायन्ती वसन्तोत्सवं तनुते । नित्यसंयोगार्थञ्च निवेदयति । एवं मनोवृत्तिरूपा विरहिणी कन्यका ब्रह्मरूपेण वरेण संगत्य तादात्म्यं व्रजति । अतश्च मनोवृत्तिरूपा विरहिणीयं ब्रह्मणा सहाभेदावाप्त्य परमानन्दरूपाऽपि जाता ।
इति श्रीमदात्मारामस्वामिकृत भावार्थदीपिकायां मारुराग: समाप्त: ॥ ७॥
.
हे सखियो ! आज आप सब स्वागत करने के लिये मंगलमय गीत गावो, क्योंकि जिस प्रभु को मैंने स्वप्न में देखा था, वह आज मेरे घर में पधार गये हैं । घर में आये हुए प्रभु को मैंने अच्छी तरह देख लिया है ।
.
इन्द्रियों की वृत्तिरूप सखियों के गतिरूप शिर पर प्रेमजल से भरा हुआ भाव का कलश रखा हुआ है । वे सब वृत्तिरूप सखियाँ मिलकर भगवान् की ‘जय हो, जय हो, जय हो’ इस प्रकार जय-जयकार करती हुई प्रभु के सन्मुख पहुँच गई अर्थात् सब इन्द्रियाँ और बुद्धि वृत्ति के द्वारा भगवदाकार वाली हो गई ।
.
उस प्रभु का तेज कोटि-कोटि सूर्यों के समान झिल-मिल, झिल-मिल चमक रहा है । उस प्रभु के प्रत्येक अंग तेज की तरह चमक रहे हैं । भगवान् जब से हृदय मन्दिर में पधारे हैं, तब से विरहिणी रूप मन की वृत्तियाँ कहती हैं कि हमारे हृदय में भी विश्व को मोहित करने वाले प्रभु विराजमान हो गये हैं । इसलिये हम सब अपना तन-मन और जीवन उसको समर्पण कर रही हैं ।
.
मेरे भगवान् नरहरि जहाँ अष्टदल कमल पर विराजमान होते हुए दर्शन देते हैं, वहाँ पर ही वृत्ति रूप विरहिणी भगवान् का गुणगान करती है वसन्तोत्सव मना रही है और नित्य संयोग की प्रार्थना कर रही है । इस प्रकार मन की वृत्तिरूपा विरहिणी ब्रह्मरुपी वर के साथ मिलकर ब्रह्मरूप हो गई तथा मन की वृत्तिरूप विरहिणी को उनके संग से परमानन्द की प्राप्ति हो गई ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें