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*प्रेम मगन रस पाइये, भक्ति हेत रुचि भाव ।*
*विरह बेसास निज नाम सौं, देव दया कर आव ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १००/बड़ा बाजार में श्रीरामकृष्ण*
*(१)समाधितत्त्व*
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आज श्रीरामकृष्ण १२ नम्बर मल्लिक स्ट्रीट बड़ा बाजार जानेवाले हैं । मारवाड़ी भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को न्योता दिया है । कालीपूजा को बीते दो दिन हो गये । आज सोमवार है, २० अक्टूबर, १८८४, कार्तिक शुक्ला द्वितीया । बड़ा बाजार में अब भी दीवाली का आनन्द चल रहा है ।
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दिन को लगभग तीन बजे मास्टर छोटे गोपाल के साथ बड़ा बाजार आये । श्रीरामकृष्ण ने छोटी धोती खरीदने की आज्ञा दी थी - मास्टर उसे खरीदकर एक कागज में लपेटकर हाथ में लिये हुए हैं । मल्लिक स्ट्रीट में दोनों ने पहुंचकर देखा, आदमियों की बड़ी भीड़ है ।
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१२ नम्बर स्ट्रीट के पास पहुँचकर देखा, श्रीरामकृष्ण बग्धी पर बैठे हुए हैं, बग्घी बढ़ नहीं सकती - गाड़ियों की इतनी भीड़ है । भीतर बाबूराम थे और राम चट्टोपाध्याय । गोपाल और मास्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण गाड़ी से उतरे । साथ में बाबूराम हैं, मास्टर आगे रास्ता दिखाते हुए चल रहे हैं ।
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मारवाड़ी भक्त के यहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा, नीचे आँगन में कपड़े की कितनी ही गाँठें पड़ी हुई हैं । एक ओर बैलगाड़ियों पर माल लद रहा है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ ऊपर के मंजले पर चढ़ने लगे । मारवाड़ियों ने आकर उन्हें तिमंजले के एक कमरे में बैठाया । उस कमरे में काली का चित्र था । श्रीरामकृष्ण आसन ग्रहण करके हँसते हुए भक्तों से बातचीत करने लगे ।
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एक मारवाड़ी आकर श्रीरामकृष्ण के पैर दबाने लगा । श्रीरामकृष्ण ने पहले तो मना किया, परन्तु फिर कुछ सोचकर कहा, 'अच्छा'; फिर मास्टर से पूछा, स्कूल का क्या हाल है ।
मास्टर - जी आज छुट्टी है ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - कल अधर के यहाँ चण्डी का गाना होगा ।
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मारवाड़ी भक्त ने पण्डितजी को श्रीरामकृष्ण के पास भेजा । पण्डितजी ने आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर आसन ग्रहण किया । पण्डितजी के साथ अनेक प्रकार की ईश्वर सम्बन्धी वार्ता हो रही है । अवतार - सम्बन्धी बातें होने लगीं ।
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श्रीरामकृष्ण - अवतार भक्तों के लिए है, ज्ञानियों के लिए नहीं ।
पण्डितजी - परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।
“अवतार पहले तो भक्तों के आनन्द के लिए होता है, और दूसरे दुष्टों के दमन लिए । परन्तु ज्ञानी कामनाशून्य होते हैं ।”
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - परन्तु मेरी सब कामनाएँ नहीं मिटी । भक्ति की कामना बनी हुई है ।
इसी समय पण्डितजी के पुत्र ने आकर श्रीरामकृष्ण की चरण-वन्दना की और आसन ग्रहण किया ।
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श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी के प्रति) - अच्छा जी, भाव किसे कहते हैं ?
पण्डितजी - ईश्वर की चिन्ता करते हुए जब मनोवृत्तियाँ कोमल हो जाती हैं, तब उस अवस्था को भाव कहते हैं, जैसे सूर्य के निकलने पर बर्फ गल जाती है ।
(क्रमशः)
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