गुरुवार, 13 अक्टूबर 2022

*२६. जीवतम्रितक कौ अंग ३३/३६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२६. जीवतम्रितक कौ अंग ३३/३६*
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मरौं के अबिगत मनाऊँ, भजन करौं इहिं भांति ।
कहि जगजीवन चरन गहि, रांम कहूँ दिन राति ॥३३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैं या तो आपा मेट कर मृतकवत रहूं या प्रभु को आनुनय विनय से मनाऊं । ऐसा ही भजन हो और मैं आपके चरणों में पड़कर दिन रात आपका भजन करता रहूं ।
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उभै महूरत सप्त दिन४, उधरि गये मुनि त्यागि ।
कहि जगजीवन रांम रस, रांम कहै यों जागि ॥३४॥
{४. सप्त दिन=सात दिन(व्रत)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मुनि जन का दोनों मुहूर्त चाहे शुभ हो या अशुभ हो और सात दिवस अर्थात नित्य ही संयम व्रत की अनुपालना से त्याग द्वारा उद्धार होता है । जिन्हें राम नाम में आनंद है वे जागृत अवस्था में राम ही कहते हैं । उन्हें संसारिक वार्ता नहीं सुहाती है ।
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रांम सुमरि मांहीं रहै, पर घर करै प्रवेस ।
कहि जगजीवन म्रितक जन, जीवै हरि के देस ॥३५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं जो साधक राम स्मरण कर ह्रदय रुपी घर में राम के साथ ही रहते हैं तो उनका दूसरे घर का प्रवेश प्रभु का घर ही है वे इच्छा रहित जन परमात्मा के देश में ही जीवित रहते हैं ।
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रांम सुमरि निरभै सदा, अमर भये ते दास ।
कहि जगजीवन मरण का, नांइ५ किया भजि नास ॥३६॥
(५. नांइ=भगवन्नाम)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्मरण करके जीव निर्भय होते हैं वे अमर हैं । उन्होंने मृत्यु भय को भगवन्नाम से मिटा दिया है ।
(क्रमशः)

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