गुरुवार, 5 जनवरी 2023

नरेन्द्र तथा हाजरा महाशय

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*सब तज गुण आकार के,*
*निश्‍चल मन ल्यौ लाइ ।*
*आत्म चेतन प्रेम रस, दादू रहै समाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ लै का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ११४ ~ नरेन्द्र आदि भक्तों को उपदेश*
*(१)नरेन्द्र तथा हाजरा महाशय*
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श्रीरामकृष्ण बलराम के दुमँजले के बैठकखाने में भक्तों के बीच में प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं । नरेन्द्र, मास्टर, भवनाथ, पूर्ण, पल्टू, छोटे नरेन्द्र, गिरीश, रामबाबू, द्विज, विनोद आदि बहुत से भक्त चारों ओर से घेरकर बैठे हुए हैं ।
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आज शनिवार है । दिन के तीन बजे होंगे । वैशाख की कृष्णा दशमी है । ९ मई, १८८५ । बलराम घर में नहीं हैं । शरीर अस्वस्थ होने के कारण वायुपरिवर्तन के लिए मुँगेर गये हुए हैं । उनकी बड़ी कन्या ने श्रीरामकृष्ण और भक्तों को बुलाकर महोत्सव किया है । भोजन के पश्चात् श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण मास्टर से बार बार पूछ रहे हैं, 'बताओ तो सही, क्या मैं उदार हूँ ?’ भवनाथ ने हँसकर कहा, 'ये और क्या कहेंगे, चुप रहने के सिवा ?
उत्तरप्रदेश का एक भिक्षुक गाने के लिए आया । भक्तों ने दो गाने सुने । गाने नरेन्द्र को अच्छे लगे । उन्होंने गानेवाले से कहा, 'और गाओ ।'
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श्रीरामकृष्ण - बस बस, अब रहने दो, पैसे कहाँ हैं ? - (नरेन्द्र से) - कह तो दिया तूने !
भक्त (हँसकर) - महाराज, आपको इसने अमीर समझा है । आप तकिये के सहारे बैठे हुए हैं न - (सब हँसते हैं)
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - यह भी तो सोच सकता है कि बीमार हैं ।
हाजरा के अहंकार की बात होने लगी । किसी कारण से दक्षिणेश्वर के कालीमन्दीर से हाजरा को चला जाना पड़ा ।
नरेन्द्र - हाजरा अब मानता है कि उसे अहंकार हुआ था !
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श्रीरामकृष्ण - इस बात पर विश्वास न करना । दक्षिणेश्वर में फिर से आने के लिए उस तरह की बातें कह रहा होगा । (भक्तों से) नरेन्द्र केवल यही कहता है कि हाजरा तो बड़ा अच्छा है ।
नरेन्द्र - मैं अब भी कहता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - क्या इतनी बातें सुनने पर भी ?
नरेन्द्र - दोष कुछ ही हैं, परन्तु गुण उसमें बहुत से हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, निष्ठा है । उसने मुझसे कहा - अभी तो मैं तुम्हें नहीं सुहाता, परन्तु पीछे से फिर मुझे खोजना होगा । श्रीरामपुर से अद्वैतवंश का एक गोस्वामी आया हुआ था । दक्षिणेश्वर में दो-एक रात रहने की उसकी इच्छा थी । मैंने उसकी खातिर की और उससे रहने के लिए कहा । हाजरा ने कहा, इसे खजांची के पास भेज दो ।
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उसके इस तरह कहने का मतलब यह था कि कहीं वह गोस्वामी कुछ माँग बैठे तो हाजरा के हिस्से से ही न देना हो ! मैंने कहा - 'क्यों रे साला, उसे गोस्वामी समझकर मैं तो लम्बा दण्डवत करता हूँ और तू संसार में रहकर कामिनी और कांचन लेकर अब कुछ जप करके इतना अहंकार कर रहा है ? - तुझे लज्जा नहीं आती ?'
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“सतोगुण से ईश्वर मिलते हैं, रजोगुण और तमोगुण ईश्वर से अलग कर देते हैं । सतोगुण की उपमा सफेद रंग से दी गयी है, रजोगुण की लाल और तमोगुण की काले से । मैंने एक दिन हाजरा से पूछा - 'तुम बताओ, किसमें कितना सतोगुण हुआ है ?' उसने कहा, 'नरेन्द्र को सोलह आना और मुझे एक रुपया दो आना ।' मैंने अपने लिए पूछा, 'मुझमें कितना है ?' उसने कहा, 'तुम्हारी तो ललाई अभी हट रही है, - तुम्हें बारह आना है ।' (सब हँसे)
(क्रमशः)

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