मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११७*

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*दूजा नहीं और को ऐसा, गुरु अंजन कर सूझे ।*
*दादू मोटे भाग हमारे, दास विवेकी बूझे ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग गुंड(गौंड) ६ (गायन समय - वर्षा ॠतु सब समय)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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११७ सत व्यवहार । दीपचन्दी
आये मेरे पारब्रह्म के प्यारे,
त्रिगुण रहित निर्गुण निज सुमिरत,
सकल स्वांग१ गहि२ डारे ॥टेक॥
माला तिलक करैं नहिं कबहूं, सब पाखंड पचिहारे ।
साँचे साध रहत सादी गति३, सकल लोक में सारे ॥१॥
नाम प्रताप प्रपंच न माने, षट् दर्शन सौ न्यारे ।
भज भगवंत भेष सब त्यागे, एक साँच के गारे४ ॥२॥
जिनके दर्श परस५ सुख उपजे, सो आये चल द्वारे ।
जन रज्जब जगपति सौं ऊंचे, प्राण उधारण हारे ॥३॥११॥
संत व्यवहार दिखा रहे हैं -
✦ परब्रह्म के प्यारे संत हमारे पधारे हैं, वे तीनों गुणों से रहित, निज स्वरूप निर्गुण का ही स्मरण करते हैं । सभी भेषों१ को उठा२ कर दूर डाल दिया है अर्थात कोई प्रकार का भेष चिन्ह नहीं रखते ।
✦ माला नहीं पहनते, तिलक कभी भी नहीं करते । सभी पाखंड वाले पच पच कर हार गये हैं किंतु उनके फंदे मे नहीं आये । सच्चे संत तो सभी लोकों के सभी स्धानों में सादी चेष्टा३ से ही रहते हैं ।
✦ नाम चिन्तन के प्रताप से प्रपंच का सन्मान नहीं करते । जोगी, जंगम, सेवड़े, बौद्ध, संन्यासी, शेष, इन छ: प्रकार के भेष धारियों से अलग ही रहते हैं । भगवान का भजन करके सब भेष त्याग दिये हैं । एक सत्य में ही गलित४ अर्थात निमग्न रहते हैं ।
✦ जिनके दर्शन और चरण स्पर्श५ से हृदय में सुख उत्पन्न होता है, वे संत स्वयं ही चल कर हमारे द्वार पर आये हैं । वास्तव में प्राणियों का उद्धार करने वाले संत जगतपति प्रभु से भी श्रेष्ठ हैं ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित गुंड राग ६ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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