मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९८

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९८)*
*राग सोरठ ॥१९॥*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९८. स्मरण (उत्सव ताल)*
*कोली साल न छाड़ै रे, सब घावर काढ़ै रे ॥टेक॥*
*प्रेम पाण लगाई धागै, तत्त्व तेल निज दीया ।*
*एक मना इस आरंभ लागा, ज्ञान राछ भर लीया ॥१॥*
*नाँहीं व नली भर बुणकर लागा, अंतरगति रंग राता ।*
*ताणैं बाणें जीव जुलाहा, परम तत्व सौं माता ॥२॥*
*सकल शिरोमणि बुनै विचारा, सान्हां सूत न तोड़ै ।*
*सदा सचेत रहै ल्यौ लागा, ज्यौं टूटै त्यौं जोड़ै ॥३॥*
*ऐसे तनि बुनि गहर गजीना, सांई के मन भावै ।*
*दादू कोली करता के संग, बहुरि न इहि जग आवै ॥४॥*
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भादी०-साधको जीवस्तन्तुवायो ब्रह्मभजनरूपपट निर्मातुं हृदयस्थानं न जहाति । वृत्तिरूप- तन्तुभ्यो मलविक्षेपादिसकलदोषजातं पृथक् कुरुते तेष्वेव तन्तुषु प्रभु-प्रेमरूपां महणतां योजयते । तत्वचिन्तनरूपस्नेहद्वारा प्रकाशितं तं साक्षिरूपं दीपप्रकाशमाश्रित्यैकतानेनेदं ब्रह्म भजनरूपं परं निर्मातुमारभते ।
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ज्ञानरूपवेमादिकमाश्रयते । नामरूपायां नलिकायां वृतिरूपान् तन्तून् विभर्ति । नामाकारवृत्तिरूपो भवतीति यावत् । इत्थं नलिकां प्रपूर्य पटं निर्माति । अन्त: प्रभुप्रेम्णा परिपूर्णो भवति रज्यते च तत् प्रभु-प्रेम्णा । जीवरूपोऽयं तन्तुवायोवृत्तिसूत्रं परमतत्वरूपे निर्माणविधौ योजयन् मग्न इवाभाति । 
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अतोऽयं जीवतन्तुवायोवृत्तिसूत्रं ब्रह्मभजनरूपे परे संयोज्य न पुन: पृथक् कुरुते, तत् साधुनि ति । सदा तेन सावधानेन स्ववृत्तिं ब्रह्मभजने योजयमानेन भूयते । यदि केनचित्कारणेन वृत्तिर्भज्यते तर्हि सद्यो योजयते । एवं निर्माणविधिद्वारा प्रगाढं भजनरूपं वस्त्रं निर्मात्यसौ । तदैव हि तद्ब्रह्ममनसे रोचते रञ्जयति च तन्मनः । अन्ते चैवं पटनिर्माणकारी तन्तुवायोऽभेद-भावेन ब्रह्म सायुज्यमेत्य न पुनर्भवाय कल्प्यते ।
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इस भजन में श्री दादूजी महाराज जुलाहा और उसके वस्त्र के दृष्टान्त से साधक और उसका भजन तथा ब्रह्मप्राप्ति का वर्णन कर रहे हैं । कपड़ा बुनने वाला जुलाहा ही यहां पर जीव है और ब्रह्मभजन ही कपड़ा बनाना है । जुलाहा उस कपड़े को बनाते हुए हृदयस्थान को नहीं छोड़ता है । वृत्तिरूप तागों से मलविक्षेप आदि सारे दोषों को दूर कर देता है ।
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फिर उन्हीं तागों में प्रभु प्रेमरूपी चिकनाई(पाण) लगाता है । तत्वचिन्तन रूप स्नेह द्वारा प्रकाशित साक्षिरूप दीपप्रकाश को लेकर एकतानता से इस ब्रह्म भजनरूप कपड़े को बनाना प्रारम्भ करता है । ज्ञान रूप वेमादिकों का आश्रय लेता है और नामरूप नलिका में वृत्तिरूप तागों को धारण करता है । इस प्रकार नलिका को वृत्तिरूप तागों से पूर्ण करके उनको प्रेम के रंग से रंगता है ।
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जीवरूप यह जुलाहा वृत्तिरूप तागों को ब्रह्म तत्वस्वरूप निर्माण विधि में लगता हुआ आमग्न सा हो जाता है । अतः जीवरूप जुलाहा वृत्तिरूप सूत को ब्रह्मभजनरूप कपड़े में लगाकर फिर अलग नहीं करता तो वह भजन अच्छा होता है । सदा ही सावधान होता हुआ अपनी वृत्ति को ब्रह्मभजन में लगाता रहता है । यदि किसी कारण से वृत्ति भंग हो जाय तो तत्काल फिर जोड़ देता है ।
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इस प्रकार निर्माण की विधि द्वारा प्रकट भजनरूपी वस्त्र को बनाता है । तब ही ब्रह्म को यह जीव-जुलाहा अच्छा लगता है और उसका मन प्रसन्न होता है । अन्त में इस प्रकार वस्त्र बनाने वाला जीवरुपी जुलाहा अभेद भाव से ब्रह्म सायुज्य को प्राप्त करके फिर संसार में नहीं आता । 
(क्रमशः)

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