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*दादू सूखा रूंखड़ा, काहे न हरिया होइ ।*
*आपै सींचै अमीरस, सुफल फलिया सोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न ~ मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं। पूंजी है, पद है, प्रतिष्ठा है, लेकिन सुख नहीं। मैं क्या करूं ?
ओशो ~ नहीं जी, आपके पास कुछ भी नहीं है। सबकी तो बात ही छोड़ो, कुछ भी नहीं है। क्योंकि सब होता तो शांति होती। सब होता तो सुख होता।
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वृक्ष तो फल से पहचाना जाता है। फल ही न लगे, उस वृक्ष को वृक्ष कहोगे ? सुख का फल न लगे तो वृक्ष झूठा होगा। मान लिया होगा। शांति का जन्म न हो तो संपदा कैसी ? फिर तुम विपदा को संपदा कह रहे हो। संपत्ति का अर्थ ही यही होता है कि जिससे सुख पैदा हो, जिसमें सुख के फूल लगें। फल से ही कसौटी है। सुनार सोने को कसता है कसौटी पर, कसौटी पर सोने का चिह्न न बने और वह कहे—सोना तो मेरे पास है लेकिन कसौटी पर चिह्न नहीं बनता, तो तुम क्या कहोगे ? पागल है।
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शांति तो चिह्न है। सुख चिह्न है कसौटी पर। तुम्हारे पास संपत्ति होती तो जरूर ये चिह्न बनते। तुम न भी बनाना चाहते तो भी बनते। अनायास बनते, अपने आप बनते। तो कहीं भूल हो रही है। तुम कुछ व्यर्थ को सार्थक समझ बैठे हो। तुमने कूड़ा—करकट इकट्ठा कर लिया है और उसे तुम संपत्ति मान रहे हो। मानने से तो संपत्ति संपत्ति नहीं होती। होती हो तो ही होती है।
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तुम लाख मानो, तुम लाख चेष्टा करो कि रेत से हम निचोड़ लें तेल, नहीं निचोड़ पाओगे। रेत में तेल हो तो निचुड़ आता, रेत में तेल है नहीं।
तुम कहते हो, 'मेरे पास सब है, लेकिन शांति नहीं।'
तो कुछ भी नहीं है। इस आति को छोड़ो। यह सब होने की भ्रांति तुम्हें अटका रखेगी। यह भ्रांति टूट जाए तो शांति की यात्रा शुरू हो सकती है। शांति की यात्रा में पहला कदम यही है कि अब तक जो भी कदम मैंने उठाये गलत दिशा में उठाये, अब इस दिशा में और कदम नहीं उठाने हैं।
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तुम कहते, 'पूंजी है। '
पूंजी की परिभाषा तुम्हें मालूम ? पूंजी का अर्थ होता है, जो खोयी न जा सके। जो मिली सो मिली। जो सदा तुम्हारी हो। जो छिन जाए, उसे पूंजी कहते हो? जिसे चोर चुरा ले जाएं, उसे पूंजी कहते हो ? जिसका आज मूल्य हो, कल निर्मूल्य हो जाए, उसे पूंजी कहते हो ? पूंजी तो वही है जो शाश्वत मूल्य रखती है। पूंजी तो भीतर की होती है, बाहर की नहीं होती। पूंजी तो कुछ बात ऐसी है कि मौत भी उसे नहीं छीन पाती। अग्नि उसे जलाती नहीं, शस्त्र उसे छेदते नहीं। लपटों में तुम्हारा शरीर जल जाएगा, तुम्हारी पूंजी अछूती बची रहेगी।
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धन पूंजी नहीं है, ध्यान पूंजी है। तुम कहते हो, 'पद है।'
जानने वालों ने तो परमात्मा को ही पद कहा है, परमपद कहा है। और सब पद तो धोखे हैं। जरा बड़ी कुर्सी पर बैठ गये, कहने लगे, पद है। छोटे बच्चों जैसी बातें हैं। छोटे बच्चे अक्सर खड़े हो जाते हैं बाप के पास, स्कूल पर खड़े हो जाते हैं, कुर्सी पर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं, मैं आपसे बड़ा, मैं तुमसे बड़ा।
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कुर्सियों पर बैठकर कोई बड़ा होता है ! कुर्सियां छिन जाने से कोई छोटा होता है ! जो बड़प्पन, जो छोटापन कुर्सियों पर निर्भर हो, वह बडप्पन नहीं, आत्मवचना है। तुम सपने देख रहे हो। पूंजी तो एक है—आत्मा की। और पद एक है—परमात्मा का। और प्रतिष्ठा ? उसी पूंजी में, उसी पद में ठहर जाओ तो प्रतिष्ठा है। प्रतिष्ठा शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है। उसी में जड़ें जमा लो, कोई हिला न सके वहा से, कोई उपाय न हिला सके, कोई परिस्थिति न हिला सके, तो प्रतिष्ठा।
ओशो
एस धम्मो सनंतानो

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