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*काल न सूझै कंध पर, मन चितवै बहु आश ।*
*दादू जीव जाणै नहीं, कठिन काल की पाश ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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आदमी की जिंदगी का हासिल क्या है ? अंतिम पूंजी क्या है ?
‘ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-सब है यही, इसको बचा कर रख लो
इस जिंदगी की पूरी अंधेरी रात का एक ही परिणाम है–दुख। बस एक ही संपत्ति है–आंसू ! यहां कुछ आदमी पाता नहीं, कुछ गंवाता जरूर है।
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हम जितने खाली हाथ आते हैं संसार में, उससे कहीं ज्यादा खाली हाथ जाते हैं। हम कुछ गंवा कर जाते हैं। आते तो खाली हैं ही, लेकिन कम से कम मुट्ठी बंद होती है। बच्चा पैदा होता है, तो मुट्ठी बंद होती है। हालांकि खाली–पर कम से कम बंद होती है। और जब जाता है, तब भी खाली होती है। लेकिन तब खुली होती है। सब लुट गया।
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जिंदगी लूटती है–देती कुछ भी नहीं। और जिंदगी लूट लेती है इस तरकीब से कि पता भी नहीं चलता। और तुम तो इसी खयाल में रहते हो कि कमा रहे हो; तुम तो इसी भ्रम में रहते हो कि कमा लिया है। और कमाए जा रहे हो। यह अपना हो गया; वह अपना हो गया; इतनी जमीन इतनी जायदाद, इतना नाम, इतनी प्रतिष्ठा ! इसी कमाने के धोखे में तुम सब गंवा देते हो।
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धनी से ज्यादा गरीब आदमी खोजना कठिन है। और जो बड़े पदोें पर बैठे हैं, उनसे ज्यादा रिक्त आत्माएं खोजनी कठिन हैं। भिखमंगे हैं; भ्रांति भर है कि भिखमंगे नहीं हैं। सौभाग्यशाली है वह, जिसे यह समझ में आ जाए कि जिंदगी लूटती है; जिंदगी लुटेरा है।
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दोेस्तो ! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है।
जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, उस दिन से मरने के सिवाय कुछ और तुमने किया नहीं है। जिसको तुम जिंदगी कहतो हो, वह चारों तरफ मौत से लिपटी हुई है। मौत का कफन तुम्हें लपेटे हुए है। एक दिन बीतता है, एक दिन और मर गए। जिंदगी और कम हुई; तुम और अशक्त हुए। ऐसे बूंद-बूंद करके यह गागर चुक जाएगी।
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और मजा यह है कि तुम इसी खयाल में हो कि तुम गागर भर रहे हो। तुम इसी खयाल में हो कि गागर भर रही रोज। थोड़ी दूर और है सपना; और पूरा होने के करीब है। जरा और मेहनत–और तुम पहुंच जाओगे मंजिल पर।
दोेस्तो ! तुम इसे महसूस करो या न करो
रोशनी जहर की लपटों में सिमट आई है।
चुपके ही चुपके जाती है शबनम का लहू
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तुम्हारा खून मौत पिए जा रही है। ऐसा नहीं है कि सत्तर साल बाद एक दिन अचानक मौत आ जाती है। मौत प्रतिपल आ रही है; तुम रोज ही मर रहे हो। सत्तर साल में मौत का काम पूरा होता है; मौत सत्तर साल के बाद अचानक नहीं आती। धीरे-धीरे आती है, आहिस्ता-आहिस्ता आती है। तुम्हें पता भी नहीं चलता और आती चली जाती है। पगध्वनि भी सुनाई नहीं पड़ती, इतने चुपचाप आती है। फुसफुसाहट भी नहीं होती; शोरगुल भी नहीं होता; द्वार-दरवाजे पर दस्तक भी नहीं होती।
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चुपके ही चुपके पिए है शबनम का लहू
आओ वो देखो शबे-माह का कातिल सूरज
अपनी किरणों का कमन्द फैंक रहा है सर सू
हर तरफ जाल है! ‘कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो’–इस विचार में पत पड़ा करो कि कौन आज मर गया, कौन कल मर गया; कौन आज फंस गया जाल में, कौन कल फंस गया–यह मत सोचा करो। ‘कौन है कौन नहीं जद में ये सोचा न करो।’
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जब भी कोई मरता है। तब याद किया करो कि तुम मर गए; जिंदगी और कम हो गई। ‘दोस्तो ! तुम इसे महसूस करो या न करो।’ यह तुम्हारी मरजी। महसूस कर लो, तो जीवन में धर्म की शुरुआत होती है। महसूस न करो, तो जिंदगी व्यर्थ की बातों में उलझे-उलझे ही समाप्त हो जाती है। आखिर में पाओगे–आंसुओं के अतिरिक्त हाथों में कुछ भी नहीं है। जिंदगी भर दौड़े और आंसुओं के अतिरिक्त और कोई सम्पदा नहीं है।
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ख्वाब की लहर सिमट आई है आंसू बन कर
हासिले-शब है यही…।’ जिंदगी की पूरी रात का यही हासिल है। ‘हासिले-शब है यही, इसको बचा कर रख लो।’
‘अपनी गुमगश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर।’…वह जो जिंदगी की सुबह खो गई, वह जो जिंदगी का सारा का सारा समय, अवसर खो गया…। ‘अपनी गुमगश्ता सहर की ये मता-ए-आखिर’–उसी खोई हुई सुबह की बस यह आखिरी पूंजी है–यह आंसू।
ओशो
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