रविवार, 14 जुलाई 2024

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*दादू नैनहुँ आगे देखिये, आत्म अंतर सोइ ।*
*तेज पुंज सब भरि रह्या, झिलमिल झिलमिल होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#रवींद्रनाथ को जब भी कोई गीत जन्मता, तो वे खाना-पीना बंद कर देते थे--बंद हो जाता था। खा-पी नहीं सकते थे। द्वार--दरवाजे बंद कर लेते थे। मिलना-जुलना बंद कर देते थे--बंद हो जाता था। मिल नहीं सकते थे। होंठ बंध जाते थे। बोलने की असमर्थता हो जाती थी। 
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द्वार-दरवाजे बंद करके, भूखे। वे सो नहीं सकते थे। जब भी कोई गीत उनमें जन्म लेता था, तो जब तक वह पूरा जन्म न ले ले, तब तक वे और कुछ भी नहीं कर सकते थे। मनाही थी कि जब रवींद्रनाथ अपने कमरे में बंद होकर कुछ लिखते हों, तो कोई आस-पास न आए।
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कभी ऐसा भी हो जाता था--क्योंकि सृजन के क्षणों के लिए कोई प्रेडिक्यान, कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती--रवींद्रनाथ बैठे हैं, मित्र पास बैठे हैं, या शिष्य पास बैठे हैं, और अचानक उनकी आंखें बंद हो गईं, और गीत का जन्म शुरू हो गया। तो लोगों को खबर थी कि चुपचाप हट जाना है। वहा फिर जरा भी बाधा नहीं डालनी है। इतना भी नहीं कहना है कि अब मैं जाऊं ! क्योंकि इतना भी उस भीतर हो रही रचना की प्रक्रिया में बाधा बन जाएगी।
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गुरदयाल मलिक ने लिखा है कि मैं नया-नया गया था। नियम तो मुझे पता था, लेकिन मन में एक अभिलाषा भी थी कि जब सच में ही गीत जन्मता है, तब मैं भी छिपकर देख लूं कि रवींद्रनाथ को होता क्या है !
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पांच-सात मित्र बैठकर गपशप करते थे और रवींद्रनाथ अपने हाथ से चाय बनाकर उनको पिला रहे थे। अचानक उनके हाथ से प्याली छूट गई। सब लोग चुपचाप वहा से अधूरी चाय पीए उठ गए। लोगों ने मलिक को भी इशारा किया। मन तो नहीं था उठने का, लोग नहीं माने तो उन्हें भी उठ जाना पड़ा। लोग तो चले गए, मलिक बाहर दीवाल के पास छिपकर बैठ गए। 
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रवींद्रनाथ की आंखों से आंसू बहने लगे, और उनके शरीर में एक पुलकन और एक सिहरन का दौर शुरू हो गया। जैसे रोआं-रोआं किसी अज्ञात ऊर्जा से भर गया हो, और जैसे रोएं-रोएं में कोई सूक्ष्म स्पंदन प्रवेश कर रहे हों। कोई अनूठी शक्ति ने सारे कमरे को घेर लिया है, ऐसा मलिक को भी अनुभव होने लगा। कोई मौजूदगी !
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जैसे कभी-कभी आपको भय लगता है, लगता है, कोई मौजूद है और दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही मलिक भी घबड़ा गए। घबड़ाहट दोहरी थी। एक तो यह थी कि मैं अपराध कर रहा हूं; मुझे यहां रुकना नहीं चाहिए। और दूसरी घबड़ाहट यह थी कि चारों तरफ कोई मौजूद हो गया था। वह जगह खाली न रही थी।
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घड़ी दो घड़ी, फिर मलिक के पैर बंध गए। अब वे भागना भी चाहते हैं, वहा से हट भी जाना चाहते हैं, लेकिन अब हट भी नहीं सकते, किसी चीज ने जैसे कि जमीन से कशिश बांध ली। आंखें झपकाना चाहते हैं, झपकती नहीं हैं। श्वास जैसे ठहर गई हो। वहा कोई विराट जैसे उतर आया चारों तरफ। सारा स्थान किसी की उपस्थिति से भर गया। 
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रवींद्रनाथ डोल रहे हैं, जैसे कोई वृक्ष हवाओं में डोलता हो। कि रवींद्रनाथ नाच रहे हैं, जैसे कोई मोर आषाढ़ में नाचता हो। कि रवींद्रनाथ के भीतर कुछ हो रहा है, जैसे किसी मां के गर्भ से बच्चे का जन्म हो रहा हो। रात गहरी होने लगी, और रवींद्रनाथ वैसी ही अवस्था में हैं। 
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फिर वे स्वस्थ हुए, वापस हुए। और जैसे ही वे स्वस्थ और वापस हुए, मलिक के पैर जमीन से जैसे छूट गए, वे भागे। बाद में उन्होंने रवींद्रनाथ से जाकर दूसरे दिन पूछा कि अपराध मेरा क्षमा हो। रात मैं चोरी छिपे खडा रह गया था। ऐसा लगा कि आप तो मिट गए, कोई और मौजूद हो गया था !
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रवींद्रनाथ ने कहा कि मैंने अब तक स्वयं कुछ भी नहीं लिखा है। जब मैं मिट जाता हूं, तभी कोई मुझसे लिखवा जाता है। जब मैं नहीं होता हूं तभी कोई मुझसे गा जाता है। और मैं लाख कोशिश करूं, कितने ही सुंदर शब्दों को जमाऊं, तुकबंदी तो बन जाती है, लेकिन काव्य का जन्म नहीं होता। काव्य का जन्म तो तभी होता है, जब मैं मिट जाता हूं, जड़-मूल से खो जाता हूं।
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अगर रवींद्रनाथ को इस काव्य के जन्म के क्षण में ही ईश्वर का अहसास हो, तो हो सकता है। क्योंकि जब भी जगत में कोई चीज सृजित होती है, कहना चाहिए, इन दि मोमेंट आफ क्रिएशन; नाट व्हेन इट हैज बीन क्रिएटेड, पैदा हो गई तब नहीं, सृजित हो गई तब नहीं, जब सृजन हो रही होती है, इन दि वेरी प्रोसेस, प्रक्रिया में होती है; जब जन्म हो नहीं गया होता, जन्म हो रहा होता है, तब कभी-कभी उसकी झलक मिल जाती है। 
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क्योंकि उसकी मौजूदगी के बिना किसी भी चीज का जन्म नहीं होता है। उसकी मौजूदगी के बिना, उस कैटेलिटिक के मौजूद हुए बिना, एक कविता भी जन्मती नहीं है। कभी-कभी सर्जकों को उसकी प्रतीति होती है, उसका कारण यह है। और जिस कवि को कवि के अंतरतम में सृजन का यह अनुभव न हुआ हो, वह तुकबंद है, कवि नहीं है। 
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उसने शब्दों को जोड़ना सीख लिया है। उसकी कविता कंस्ट्रक्यान है, क्रिएशन नहीं। कपोजीशन है, क्रिएशन नहीं। उसने जोड़-तोड़ बना ली है। वह भाषा जानता है, वह भाषा का खेल जानता है। वह नियम जानता है। वह शब्दों को बिठा लेता है। लेकिन उसने कभी काव्य का जन्म नहीं देखा है।
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इसलिए हम अपने मुल्क में कवियों की दो कोटियां करते रहे हैं। एक कोटि कवियों की वह थी, जो शब्दों को निर्माण कर लेते थे, जमा लेते थे, उनको हम कवि कहते थे। एक वे भी कवि थे, जिनके भीतर कविता का जन्म होता था, उनको हम ऋषि कहते थे। ऋषि का अर्थ कवि है। लेकिन फर्क थोड़ा-सा है।
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ऋषि हम उसे कहते हैं, जो मिट गया और जिसने जन्म होते अपने भीतर किसी चीज को देखा। कभी, सृजन के किसी क्षण में उसकी झलक मिल सकती है, क्योंकि हर सृजन में वह मौजूद होता है। कभी आपने खयाल किया हो, जब कोई स्त्री पहली दफा गर्भवती होती है, तो उसके सौंदर्य में शरीर के पार की कोई चीज उतरनी शुरू हो जाती है ! असल में मां बने बिना स्त्री सौंदर्य के पूरे निखार को कभी उपलब्ध नहीं होती है। 
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जब उसके भीतर कोई जन्म हो रहा होता है, कोई सृजन हो रहा होता है, तब उसके आस-पास परमात्मा की छबि और मौजूदगी अनिवार्य है। अगर स्त्रियां इस सत्य को जान लें कि जब उनके भीतर कुछ निर्मित हो रहा है, तब वे परमात्मा के अति निकट होती हैं, अगर वे क्षण उनके ध्यानपूर्ण हो जाएं, तो एक स्त्री को अलग से साधना करने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका मां होना ही उसकी साधना हो जा सकती है।
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पुरुष इस लिहाज से वंचित है, स्त्री इस लिहाज से बहुत गरिमा युक्त है। क्योंकि पुरुष के भीतर कुछ भी निर्माण नहीं होता, सृजन नहीं होता, स्त्री के भीतर कुछ सृजन होता है। स्त्री के भीतर सृजन की प्रक्रिया गुजरती है। और छोटा-मोटा सृजन नहीं होता। एक फूल जब खिलता है पौधे पर, तो सारा पौधा सुंदर हो जाता है। 
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क्यों ? क्योंकि फूल का सृजन हुआ। लेकिन जब जीवन का श्रेष्ठतम फूल, मनुष्य, किसी स्त्री के भीतर निर्मित होता है, तो स्वभावत: उसका सारा व्यक्तित्व एक अनोखे सौंदर्य से भर जाता है। उस क्षण परमात्‍मा बहुत निकट है। इसलिए मातृत्व एक गहरी धार्मिकता। इसलिए जिस दिन स्त्री मां नहीं होना चाहेगी, उस दिन स्त्री का धार्मिक होना असंभव हो जाएगा।
ओशो


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