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*दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि,*
*भावै जीव जगाइ ।*
*भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ट्रेन में तीन महिलाएं बैठी हुई थीं। आपस में गपशप चल रही थी। उनमें से एक स्त्री, जो कि देखने-दिखाने में साठ साल से कम नहीं लगती थी, बड़े ही मोहक स्वर में बोली, अरे, मेरी उम्र कोई कह नहीं सकता कि मैं चालीस साल की हूं। अभी भी मेरा शरीर-विन्यास अच्छे-अच्छे युवकों को दिल थामने पर मजबूर कर देता है।
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उसकी बात सुन कर दूसरी महिला, जो कि चालीस साल की रही होगी, आंखें मटकाती हुई बोली, अरे, यह तो कुछ भी नहीं। मैं खुद तीस साल की हूं, लेकिन लोग मुझे बाईस का समझते हैं। और मुझे देख कर युवक तो युवक किशोर तक दीवाने हो जाते हैं।
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यह सब सुन कर तीसरी कैसे चुप रह सकती थी ! वह बोली, अरे, यह सब तो कुछ भी नहीं। लोग तो मुझे अभी सोलह साल की ही समझते हैं, जब कि मेरी वास्तविक उम्र बीस साल है। और युवक और किशोरों की तो छोड़ो, छोटे-छोटे बच्चे भी मुझे देख अपना कलेजा थाम लेते हैं। और उस युवती की उम्र रही होगी कोई तीस साल।
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मगर स्त्रियां तो स्त्रियां ! मुल्ला नसरुद्दीन ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ था। उनकी बातें सुन कर वह धड़ाम से नीचे आ गिरा। महिलाएं तो एकदम घबड़ा गईं। एकदम बोलीं, अरे आप कहां से आ टपके ? मुल्ला बोला, मैं सीधा परमात्मा के यहां से चला आ रहा हूं, अभी-अभी पैदा हुआ हूं।
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जो मानना हो मानो, कोई रोकने वाला नहीं है। लोग ऐसे ही मान कर बैठे हैं। उनका धर्म भी उनकी मान्यता है, उनका ज्ञान भी उनकी मान्यता है। उनकी नीति, उनका आचरण भी बस मान्यता है। चाहिए कोई सदगुरु कि तुम्हें झकझोर दे, तुम्हारी सारी मान्यताएं ऐसे झड़ जाएं जैसे पतझड़ में पत्ते झड़ जाते हैं। तब नये अंकुर होते हैं पैदा। तब नये पल्लव निकलते हैं।
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कमर बांधि खोजन चले, पलटू फिरै उदेस।
षट दरसन सब पचि मुए, कोउ न कहा संदेस॥
पलटू कहते हैं: कमर बांध कर मैं खोजने निकला था। एक ही लक्ष्य था, एक विशेष लक्ष्य था, परमात्मा को पाना। सारे दर्शन, छहों दर्शन छान डाले, उनसे मुझे कोई संदेश न मिला।
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षट दरसन सब पचि मुए, कोउ न कहा संदेस।
वहां सत्य तो वहां से कभी का उड़ चुका है।
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कुछ अपनी करामात दिखा, ऐ साकी
जो खोल दे आंख, वो पिला, ऐ साकी
हुश्यार को दीवाना बनाया भी तो क्या
दीवाने को हुश्यार बना, ऐ साकी
कोई साकी चाहिए ! कोई सदगुरु चाहिए, जो पिला दे ! दीवाने को होशियार बना दे, सोए को जगा दे !
ओशो
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