शनिवार, 20 जुलाई 2024

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*जे निधि कहीं न पाइये, सो निधि घर-घर आहि ।*
*दादू महँगे मोल बिन, कोई न लेवे ताहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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भारत ने ध्यान के शिखर छुए। यही भारत का दुर्भाग्य हो गया। कभी-कभी सौभाग्य दुर्भाग्य बन जाता है। मुझसे पश्चिम में वैज्ञानिकों ने, डाक्टरों ने, सर्जनों ने, संगीतज्ञों ने, साहित्यकारों ने, न मालूम कितने लोगों ने यह पूछा कि जब भी हम भारत आपसे मिलने आए, तो भारतीय लोगों ने, जो हमसे परिचित थे, जिनके यहां हम मेहमान हुए थे, हमारी हंसी उड़ाई, खिल्ली उड़ाई- क्या तुम ध्यान के पीछे पड़े हो ! क्या रखा है ध्यान में ? सारा पूरब तो पश्चिम आ रहा है सीखने विज्ञान। और तुम भी एक छंटे पागल हो कि तुम्हें धुन चढ़ी है ध्यान की !
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हमने इस देश में ध्यान के बड़े-बड़े शिखर भी देखे तो क्या फायदा हुआ ? लोग तो भूखों मर रहे हैं। तुम्हें भी भूखों मरना है ? अभी भी लौट जाओ। कुछ बिगड़ा नहीं है। भारत के मन में- वह जो विशाल भारत की जनता है, उसके मन में- ध्यान की जगह और चीजों ने ले रखी है। धन में उसे रस है, पद में उसे रस है, प्रतिष्ठा में उसे रस है। और आज पश्चिम में ध्यान के प्रति विराट रस पैदा हुआ है।
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संन्यासियों ने जो कम्यून अमरीका में खड़ा किया था, उसको अमरीका की सरकार के मिटाने के पीछे और कोई राज नहीं, सिर्फ एक राज था। और वह राज यह था कि कम्यून अमरीका की प्रतिभा को अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। जितने प्रतिभाशाली लोग थे, वे किसी न किसी रूप में कम्यून के प्रति आकर्षित हो रहे थे।
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और कम्यून एक भय अमरीका की सरकार के मन में पैदा करने लगा कि अगर लोग इस तरह बैठ कर शांत ध्यान करने लगे, तो तीसरे महायुद्ध का क्या होगा ? अगर लोग ध्यान से भर कर प्रेम से भर गए, तो वह जो अमरीका का साम्राज्य सारी दुनिया में फैला हुआ है, उसका क्या होगा ? अगर लोगों के मन में पद, प्रतिष्ठा और धन की दौड़ न रही, तो अमरीका की जो आज ताकत है, डालर, वह हवा में विलीन हो जाएगा।
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एक छोटी सी कम्यून पांच हजार लोगों की, उनके लिए इतनी ज्यादा कष्टप्रद हो गई कि उसे हर हालत में मिटाना है, उसे बिलकुल नेस्तनाबूद कर देना है। बुलडोजर चलवा कर, जहां कम्यून था वहां पुराना रेगिस्तान वापस ले आना है। रेगिस्तान को हमने पांच साल मेहनत करके एक मरूद्यान बना लिया था। उस मरूद्यान को मिटा देना है।
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जिस दिन मैं कम्यून में पहले दिन पहुंचा था, वहां एक पक्षी नहीं था। ऐसा प्रतीत होता है कि पक्षी और जानवर आदमियों से ज्यादा समझदार हैं। धीरे-धीरे पक्षी आने शुरू हो गए। धीरे-धीरे हिरणों के झुंड के झुंड आने शुरू हो गए। और हिरण तुमने भी देखे होंगे। मैंने भी देखे हैं। लेकिन कम्यून में हिरणों ने जो समझ दिखलाई, वह हैरानी की थी।
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बीच रास्ते पर खड़े होंगे, तुम कार का हार्न बजाए जाओ, वे हटने वाले नहीं। उन्हें मालूम है कि ये उन लोगों की जमात है, जो किसी को चोट नहीं पहुंचाते। उतरो नीचे गाड़ी से, धक्के दो उनको, तब वे रास्ता छोड़ेंगे। और चूंकि अमरीका में हिरणों को मारने के लिए हर साल दस दिन के लिए छुट्टी मिलती है। उन दस दिनों में जितने हिरण तुम्हें मारने हों, मार सकते हो। तो आस-पास जितने दूर-दूर से हिरण आ सकते थे, वे सब कम्यून में आ गए।
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कम्यून के पास जगह थी। कोई एक सौ छब्बीस वर्गमील जगह थी। हजारों हिरण अपने आप चले आए। जैसे कोई आंतरिक संदेश कि यहां कोई फिकर नहीं। यहां उन्हें कोई पत्थर भी मारने वाला नहीं है। यहां उन पर गोली नहीं चलेगी। कम्यून ने अमरीका का कोई भी नुकसान नहीं किया था। सिर्फ एक मरुस्थल को जीवित मरूद्यान बनाया था।
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लेकिन यही तकलीफ की बात हो गई, क्योंकि जो लोग वहां थे, वे ध्यान के लिए इकट्ठे हुए थे। और अगर ध्यान अमरीका की प्रतिभा को पकड़ ले और निश्चित पकड़ लेगा, कम्यून के मिटने से कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि अमरीका ठीक उस अवस्था में है, जो हमसे उलटी है। उन्होंने धन के शिखर छू लिए हैं। अब धन में वहां आकर्षण नहीं है। इसलिए ऊपर से तुम्हें दिखाई पड़ता है कि उनके पास इतना धन है। लेकिन धन में वहां किसी को कोई आकर्षण नहीं है।
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कम्यून में ऐसे संन्यासी थे, जिन्होंने एक करोड़ रुपया दान दे दिया, जो कि उनकी पूरी संपत्ति थी। एक पैसा भी पीछे नहीं बचाया कि कल क्या होगा। दो सौ करोड़ रुपये कम्यून के बनाने में सिर्फ संन्यासियों ने दिए। हमने किसी और के सामने हाथ नहीं फैलाया और न किसी से भीख मांगी। दो सौ करोड़ रुपया देते वक्त किसी ने किसी से कोई आग्रह नहीं किया।
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लोगों के पास पैसा है। और यह भी समझ में आ गया कि पैसे से जो खरीदा जा सकता है, वह दो कौड़ी का है। कुछ और भी है, जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता। और अब उसी की तलाश है, उसी की प्यास है, उसी की खोज है, उसी की अभीप्सा है। ध्यान उस सबका इकट्ठा नाम है। उसमें प्रेम जुड़ा है। उसमें करुणा जुड़ी है। ध्यान तो एक मंदिर है, जिसके बहुत द्वार हैं। उसमें वह सब जुड़ा है, जो पैसे से नहीं खरीदा जा सकता।
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पश्चिम में अपूर्व रूप से ध्यान के प्रति आकर्षण है, क्योंकि पश्चिम में कभी भी ध्यान के शिखर नहीं छुए- न कोई गौतम बुद्ध, न कोई कबीर, न कोई रैदास। पश्चिम की आत्मा खाली है। हाथ भरे हैं, प्राण सूने हैं। इस स्थिति ने पश्चिम के मन में धन के प्रति एक विकर्षण पैदा कर दिया और भारत में ध्यान के प्रति एक विकर्षण पैदा कर दिया। जिंदगी का चक्र बहुत अदभुत है। इस बात का बहुत डर है कि पूरब पश्चिम हो जाए और पश्चिम पूरब हो जाए।
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भारतीय पार्लियामेंट में विरोधी पार्टी के नेता के द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में संबंधित मंत्री ने जवाब दिया था कि भगवान को या उनके किसी संन्यासी को भारत आने से नहीं रोका जाएगा। यह अफवाह कि उनके संन्यासियों को भारत आने से रोका जाएगा, झूठ है।
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मैंने कुछ संन्यासियों को अलग-अलग देशों में भारतीय राजदूतावासों में भेजा। एथेंस में राजदूतावास में पूछा गया कि भारत किसलिए जाना चाहते हो ? तो जो संन्यासिन वहां गई थी, उसने कहा: ध्यान करने के लिए। और तुम हैरान होओगे कि उत्तर राजदूत ने यह दिया कि ध्यान, योग इत्यादि के लिए अब भारत में कोई स्थान नहीं। हमें इस तरह के यात्री नहीं चाहिए।
OSHO

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