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*घन बादल बिन बरषि है, नीझर निर्मल धार ।*
*दादू भीजै आत्मा, को साधु पीवनहार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अगर प्रेम मिले, तो बांटना। अगर प्रेम मिले, तो परमात्मा चारों तरफ मौजूद है, उसको समर्पित कर देना। ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पये।’
जो उससे तुम्हें मिले, वह उसी को लौटा देना। तो और मिलता रहेगा। ऐसा ही समझो कि सागर से उठते हैं बादल, फिर बरसते हैं हिमालय पर, गंगाओं में बहते हैं फिर; और गंगाएं ले जाकर फिर सागर में उंड़ेल देती हैं। सागर से फिर उठते हैं बादल, फिर बरसते हैं हिमालय पर, फिर गंगाओं में जाते हैं, फिर सागर में उंड़ल जाते हैं। जीवन में एक वर्तुल है।
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अगर गंगा सोचे कि ऐसा अपना पानी सागर में लुटा देना बड़ी नासमझी है–गंगा कंजूस हो जाए, पूंजीवादी हो जाए और सोचे कि बंद रखो अपना; ऐसे तो मिट जाएंगे, बरबाद हो जाएंगे–तो उसी क्षण सिलसिला टूट जाएगा। फिर बादल नहीं उठेंगे। फिर गंगा में नया जल नहीं बरसेगा। और ध्यान रखना, गंगा गंदी होती जाएगी। आज नहीं कल गंगा सड़ जाएगी। ताजगी खो जाएगी, क्योंकि सागर उसे शुद्ध करता है। सारा कीचड़-कबाड़, पत्थर-मिट्टी, गंदगियां, गंदगियों से भरे नाले-नदियां, आदमी का सारा मल-मूत्र गंगा ले जाती है, सागर में डाल देती है। फिर बादल बने, तो मलमूत्र और गंदगी तो सागर की तलहटी में पड़ी रह गई, भाप बनी। गंदगी तो भाप नहीं बन सकती। भाप शुद्ध होकर उठी। फिर बादल बने। फिर गंगा को नया ताजा जल मिला। फिर नया जीवन उतरा।
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ध्यान रखना, ऐसा ही प्रेम का वर्तुल है। उसे तोड़ना मत। जरा सा भी प्रेम मिले तो बांट देना। यह डर मन में मत लेना कि चूक जाएगा। यह डर मन में लिया कि निश्चित चुक जाएगा।
‘कभी नसीब हुई है भिखारियों को खुशी ?’ भिखमंगे को खुशी नहीं मिल सकती, क्योंकि वह मांगता है और पकड़ता है। खुशी मिलती है–देनेवालों को। खुशी मिलती है–सम्राटों को। खुशी मिलती है–बांटने वालों को। बांटो–और मिलती है।
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कभी नसीब हुई है भिखारियों को खुशी ?
हमेशा हाथ ही फैलाए जिंदगी गुजरी।
लुटाए जा जो तेरे पास है लुटाए जा
कुशादा दस्ते सखी को नहीं है कोई कमी
जो दिल में प्यार की दौलत है तो लुटाए जा।
और घबड़ा मत, क्योंकि जहां से यह प्यार की छोटी सी किरण आई, वहां से और किरणें भी आएंगी। आस्था रख। श्रद्धा रख।
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ऐसा ही समझो कि एक कुएं में पानी है; तुम पानी न पियो, तुम डरे रहो कि कहीं पानी चुक न जाए; तुम किसी को पानी न भरने दो; तुम कुएं को ढांक कर रख दो–तालों में, जंजीरों में; कुएं को कारागृह बना दो–तो तुम सोचते होः पानी बचेगा ? सड़ जाएगा, जहर हो जाएगा। और ज्यादा दिन अगर पानी न निकाला, तो वह जो छोटे-छोटे झरने ताजे पानी को लाते थे कुएं में रोज-रोज, वे बंद हो जाएंगे, उन पर मिट्टी जम जाएगी। फिर नया पानी नहीं आएगा। और फिर इस कुएं का पानी पीना मत भूल कर। उससे मौत आएगी, जीवन नहीं आएगा।
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ऐसे ही झरने हैं तुम्हारे भीतर। तुम परमात्मा से जुड़े हो। जैसे कुआं सागरों से जुड़ा है झरनों के माध्यम से–ऐसे हम सब उसी में अपनी जड़ें रोपे खड़े हैं। वह अनंत है। वहां से प्रेम आए तो कंजूसी मत करना; बांटना।
‘दोनों हाथ उलीचिए, यही संतन को काम।’ जो मिले, बांटना। गीत मिले, गीत बांटना। नृत्य मिले, नृत्य बांटना। बांटना जरूर।
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जो दिल में प्यार की दौलत है तो लुटाए जा
तेरी सरिश्त में लाइन्तहा मोहब्बत है
तेरे स्वभाव में असीम प्रेम पड़ा है। घबड़ा मत। उदारता सीख।
तेरी सरिश्त में लाइन्तहा मोहब्बत है
जहाने जीस्त की वुसअत तेरी वरासत है
तुझे सारे अस्तित्व का खजाना मिला है। यहां कोई भी इस अर्थ में गरीब नहीं। कैसे गरीब हो सकता है ? जहां सब के पीछे परमात्मा खड़ा हो; जहां सब के हाथों में परमात्मा का हाथ हो! तुमने अगर अपने को भिखारी बना लिया, तो वह तुम्हारी धारणा है, अन्यथा तुम सम्राट हो ! शहनशाहों के शहनशाह ! अन्यथा तुम स्वयं परमात्मा हो।
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अगर बचाया तो कुछ भी न बचेगा। लुटाए जा, ये लुटाने से और बढ़ती है। यह प्रेम का सूत्र कबीर के इस वचन में हैः
पाया हो तो दे ले प्यारे, पाय पाय फिर खोना क्या रे।
जब अंखियन में नींद घनेरी, तकिया और बिछौना क्या रे॥
तुम चौंकोगे कि अचानक इस सूत्र का यहां क्या अर्थ होगा ? अर्थ है और गहरा अर्थ है।
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कबीर यह बात कह रहे हैं कि जब प्रेम पैदा होता है, तो फिर क्या पूजा, क्या अर्चना ? ये तो उनकी चीजें हैं, जिनके जीवन में प्रेम नहीं है। तो दीया लगा कर बैठे हैं, आरती बन कर बैठे हैं, किसी पत्थर की मूर्ति के सामने आरती घुमा रहे हैं ! ये तो उनकी बातें हैं, जिनके जीवन में प्रेम नहीं हैं। ये पूजा और ये प्रार्थना सब झूठ हैं। ये औपचारिकताएं हैं।
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जिसके जीवन में असली प्रेम हैं, वह तो लुटाएगा। वह कोई मंदिर-मस्जिद में जाएगा ? किसी पत्थर की मूरत खोजेगा ? जहां इतनी जिंदा मूर्तियां चलती-फिरती हों, जहां चारों तरफ परमात्मा न मालूम कितने रूपों में द्वार पर दस्तक देता हो–वहां तुम मंदिर और मसजिद में खोजने जा रहे हो ! तुम होश में हो ? तुम्हारे पास आंखें हैं या कि अंधे हो ? तुम कहां खोजने जा रहे हो ?
ओशो
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