बुधवार, 31 जुलाई 2024

नैन खुले हरि रूप हि चाहत

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*माया मारै लात सौ, हरि को घालै हाथ ।*
*संग तजै सब झूठ का, गहै साच का साथ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*नैन खुले हरि रूप हि चाहत,*
*रंग उमंग सु अंग न मावै ।*
*बीन बजावत श्याम रिझावत,*
*कोटि विषै सुख चित्त न आवै ॥*
*बीत गई निशि ओउ भये रसि,*
*मारग आपन आपन जावै ।*
*सोम गिरी अभिराम करे गुरु,*
*कौन कहै उपमा उर भावै ॥ ४११॥*
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हरि कृपा से चिन्तामणि के वचनों से विल्वमंगलजी के हृदय के नेत्र खुल गये । अब तो आपके हृदय में हरि रूप दर्शन की ही इच्छा रह गई थी । प्रभु-प्रेम रूप रंग की सुन्दर उमंग आपके अंग में नहीं समा रही थी ।
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चिन्तामणि भी वीणा बजाते हुये श्रीविहारीजी की वृन्दावन कुञ्ज लीला, रूप, धाम, नाम आदि का कीर्तन करते हुये श्यामसुन्दर को रिझाने लगी । उसे सुन कर विल्वमंगलजी ऐसे आनछ में निमग्न हुये, जिससे कोटिन विषय सुख भी उनके चित्त पर नहीं आते थे अर्थात् वैराग्य हो गया था ।
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इस प्रकार भगवत् कीर्तन के आनन्दानुभव रस के पान में सारी रात्रि व्यतीत हो गई । फिर प्रातः काल होते ही आपने अपना मार्ग पकड़ा और सुन्दर स्वभाव वाले सोमगिरिजी के पास आकर उनको गुरु धारणा करके उनसे उपदेश ले लिया ।
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इन विल्वमंगलजी के हृदय के भाव को कौन कथन कर सकता है ! आप तो सर्वत्र श्रीकृष्ण को ही देखते थे ॥
(क्रमशः)

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