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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू कहै, जनि विष पीवै बावरे,*
*दिन दिन बाढै रोग ।*
*देखत ही मर जाइगा, तजि विषिया रस भोग ॥*
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*मन-प्रबोध*
रँगभीनाँ भवरा सुमरि हरि ।
जुगबाल्ही कौ नेह निवारि,
या तूँ मनसवीं मनह विसारि ॥टेक॥
काँटा वाली केतुकी रे, भवर न बैठी जाइ ।
वहि कौ काँटौ भाजणौं, तूँ नैं मारैली उर लाइ ॥
म्हारै आँगन केवड़ौ रे, जिहिं की बास सुबास ।
लाई लाज न आवई, तूँ ढूंढ़त फिरै पलास ॥
मैं तूँ भवरा बरजियौ रै, बन मैं कौंण गुणाँ ।
सब कुसमन मैं रस करै, तूँ कालौ याँह लषणाँ ॥
उडि भवरा ऊँची दसा, नीची सुरति न राखि ।
तोनैं कवल बताइस्यौं, तू भूणकि भूणकि रस चाखि ॥
बाहुड़ि भवन गुंजारि करि, हरि बाड़ी माहिं बमेक ।
बषनां बास बिलंबियौ, जहाँ ऊजल भवर अनेक ॥६॥
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जुगबाल्ही = माया । रँगभीनाँ भवरा = सांसारिक-विषय-भोगासक्त मन । मनसवीं = मन में बसने वाली नाना भोगों को प्राप्त करने की इच्छा । मनह = मन में से । भाजणौं =चुभने वाला । मारैली उर लाइ = हृदय को विदीर्ण कर देगा । सुबास = सुगंधित । लाई = तनिक सी भी । पलास = आँक । बरजियौ = मना किया । ऊँची दसा = परमात्मा की ओर लग । नीची = संसार की ओर मत लग । सुरति = मनोवृत्ति । बताइस्यौं = बताऊंगा, बताता हूँ । भुणकि-भुणकि = घूम घूमकर, भूँ भूँ की आवाज करता हुआ । बाहुड़ि = संसार की ओर से उलट आ ।हरि बाड़ी = परमात्मा रूपी बाड़ी में विवेक = ज्ञान रूपी गुंजार कर । बिलंबियौ = अटका, संलग्न हो गया । ऊजल भँवर = निर्मल मन वाले साधक, सिद्ध ।
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सांसारिक विषयभोगों में आसक्त मन ! परब्रह्म-परमात्मा-हरि के नाम का स्मरण कर । माया और माया जन्य संसार के प्रति विद्यमान आसक्ति को छोड़ । तू इस संसार में प्राप्त विषयभोगों को प्राप्त करने की इच्छा का भी सर्वथा परित्याग कर दे । संसार के विषयभोग कांटों युक्त केतकी के वृक्ष के समान हैं जिस पर मन रूपी भ्रमर को मत बिठा । उसका काँटा = आसक्ति, चुभने वाला = पतित कर देने वाला है । वह तुझे सीधे हृदय में ही चोट करके मारेगा = वह संसारासक्त करके बुरी तरह फँसा देगा ।
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अरे ! मेरे आंगन में केवड़े का वृक्ष है = मेरे यहाँ सत्संग की व्यवस्था है जिसकी गंध अत्यन्त खुशबूदार है = जिसको करने से परमात्मा की प्राप्ति सहज में ही हो जाती है । तू तो बड़ा मूर्ख है, तुझे तनिक सी भी लज्जा नहीं आती कि तू केवड़े जैसे सुगंधित वृक्ष को छोड़कर पलास = विषयभोगों को ढूंढता फिरता है ।
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हे काले रंग वाले भ्रमर रूपी मन ! मैंने तुझे पहले भी खूब समझाया है कि इस संसार रूपी वन में ऐसे कौन से गुण = शाश्वत सुख हैं जिन्हें ढूंढता हुआ तू सब कुसमन = सभी फूलों में = सारे संसार में रसकरै = घूमता फिरता है = रमण करता फिरता है ।
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हे मन ! अब नीची मनोवृत्ति को त्याग कर ऊँची वृत्ति धारण कर । मैं तुझे परमात्मा रूपी कमल को प्राप्त करने का रास्ता बताता हूँ जिस पर घूम-घूम कर अखंडानंद रूपी रस का रसास्वादन कर ।
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हे मन रूपी भ्रमर संसार की ओर से वापिस आकर परमात्मा रूपी बाग में ज्ञान रूपी गुंजार कर और ज्ञान, भक्ति, वैराग्य रूपी सुगंधि में अटक जा = निमग्न हो जा । इस परमात्मा रूपी बाग में अनेक ऊजल भँवर = शुद्धांतःकरण वाले साधक-सिद्ध निवास करते हैं ॥६॥
(क्रमशः)
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