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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै,*
*आयु घटै तन छीजै ।*
*अंतकाल दिन आइ पहुंता, दादू ढील न कीजै ॥*
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*काल चेतावनी ॥*
भाई रे, गिणिया मिणियाँ लेखा पूरा, तामैं घटती जावै ।
यहु चित चेति न काहे देखै, दिन दिन नेड़ी आवै ॥टेक॥
तिल तिल घड़ी पहर जाइ पूगा, जिसी घड़ावलि बागै ।
काया कटोरी जल मैं मेल्ही, बूड़त बार न लागै ॥
पवन की डोरि गगरिया बांधी, सो ले कुवै उसारी ।
मति पाहण का ठबका लागै, तौ बैसि रहै पणिहारी ॥
दिन तैं राति राति तैं दिन है, इत देखौं उत ऊगै ।
ना जाणौं कलि केहा ह्वैसी, आव घटै दिन पूगै ॥
जो दिन जाइ सु बहुरि न आवै, ताका लाहा लीजै ।
बषनां रे हरि सुमिरण सेती, करणा होइ सु कीजै ॥९॥
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गिणियाँ = गिने हुए हैं । मिणियाँ = माला रूपी पूर्णायु के मणिये रूपी दिन, श्वास ॥ लेखा पूरा = आयु का पूरा हिसाब-किताब निश्चित है । नेड़ी = नजदीक । पूगा = पूरे हो रहे है । घड़ावलि = घड़ी । बागै = बजती है । पवन = श्वास-प्रश्वास रूपी प्राणवायु । गगरिया = शरीर रूपी घड़ा । उसारी = उतारी । मति = बुद्धि । ठबका = टक्कर । बैसि रहै पणिहारी = जीव, आत्मा रूपी पनिहारी बैठी रह जाती है, आवागमन के चक्र में ही उलझी रह जाती है ? लाहा = लाभ, समय का सदुपयोग ।
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हे भाई ! पूरी आयु के श्वासों का लेखा-जोखा गिना हुआ है, निश्चित है; उसमें बढ़ने की संभावना बिलकुल नहीं है । उल्टे वह घटती ही जाती है । इस तथ्य को तुम्हारा चित्त चैतन्य होकर = सावधान होकर क्यों नहीं चिंतन करता । जैसे–जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे उसके पूर्ण होने की अवधि नजदीक आती जाती है ।
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घड़ी, प्रहर, दिन, मास, वर्ष आदि के रूप में काल तिल-तिल = क्षण-क्षण पूरा ठीक उसीप्रकार होता जाता है जैसे घड़ी प्रति घंटे पर बजते हुए आगे से आगे बढ़ती ही जाती है । काया रूपी नौछिद्रों = नौ द्वारों वाली कटोरी सांसारिक विषय भोगों रूपी जल में डाल रखी है = आसक्त कर रखी है जिसे डूबते हुए = समाप्त होते हुए समय नहीं लगता ।
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श्वास-प्रश्वास रूपी प्राणवायुसे की डोरी से शरीर रूपी घड़े को बांधकर संसार रूपी कुवे में उतार रखा है । कुबुद्धि रूपी पत्थर की टक्कर लगते ही मन संसार में आसक्त होकर संसारी बन जाता है । जीव रूपी पणिहारी अपने उद्धार होने की राह देखते ही रह जाती है ।
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समय, दिन के पश्चात् रात्रि, रात्रि के पश्चात् दिन इधर उगकर उधर अस्त होते रहते है । मैं नहीं जानता कि कल क्या होगा क्योंकि जैसे-जैसे दिन पूरे होते हैं; आयु घटती ही जाती है । जो समय चल जाता है, वह पुनः लौटकर नहीं आता है ।
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अतः जो समय हमारे पास है उसका सदुपयोग करके हमें मनुष्य जन्म मिलने का लाभ लेना चाहिये । बषनांजी कहते हैं, हरि स्मरण के साथ-साथ और जो भी सुकृत, सत्संग, दान-पुण्य करने हैं, वे कर डालिये । अन्यथा अवसर निकल जाने पर हाथ ही मिलते रह जाना पड़ेगा ॥९॥
(क्रमशः)
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