सोमवार, 26 अगस्त 2024

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*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
*🌷🙏 卐 सत्यराम सा 卐 🙏🌷*
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*बैठे सदा एक रस पीवै, निर्वैरी कत झूझै ।*
*आत्मराम मिलै जब दादू, तब अंग न लागै दूजै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*कृष्ण कहते हैं, समत्वबुद्धि योग का सार है !*
कृष्ण उसे योगी न कहेंगे, जो किसी एक अति को पकड़ ले। वह भोगी के विपरीत हो सकता है, योगी नहीं हो सकता। त्यागी हो सकता है। अगर शब्दकोश में खोजने जाएंगे, तो भोगी के विपरीत जो शब्द लिखा हुआ मिलेगा, वह योगी है। शब्दकोश में भोगी के विपरीत योगी शब्द लिखा हुआ मिल जाएगा। लेकिन कृष्ण भोगी के विपरीत योगी को नहीं रखेंगे। कृष्ण भोगी के विपरीत त्यागी को रखेंगे।
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योगी तो वह है, जिसके ऊपर न भोग की पकड़ रही, न त्याग की पकड़ रही। जो पकड़ के बाहर हो गया। जो द्वंद्व में सोचता ही नहीं; निर्द्वंद्व हुआ। जो नहीं कहता कि इसे चुनूंगा; जो नहीं कहता कि उसे चुनूंगा। जो कहता है, मैं चुनता ही नहीं; मैं चुनाव के बाहर खड़ा हूँ। वह च्वाइसलेस, चुनावरहित है। और जो चुनावरहित है, वही संकल्परहित हो सकेगा। जहाँ चुनाव है, वहाँ संकल्प है।
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मैं कहता हूँ, मैं इसे चुनता हूँ। अगर मैं यह भी कहता हूँ कि मैं त्याग को चुनता हूँ, तो भी मैंने किसी के विपरीत चुनाव कर लिया। भोग के विपरीत कर लिया। अगर मैं कहता हूँ, मैं सादगी को चुनता हूँ, तो मैंने वैभव और विलास के विपरीत निर्णय कर लिया। जहाँ चुनाव है, वहाँ अति आ जाएगी। चुनाव मध्य में कभी भी नहीं ठहरता है। चुनाव सदा ही एक छोर पर ले जाता है। और एक बार चुनाव शुरू हुआ, तो आप अंत आए बिना रुकेंगे नहीं।
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और भी एक मजे की बात है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव करके एक छोर पर चला जाए, तो बहुत ज्यादा देर उस छोर पर टिक न सकेगा; क्योंकि जीवन टिकाव है ही नहीं। शीघ्र ही दूसरे छोर की आकांक्षा पैदा हो जाएगी। इसलिए जो लोग दिन-रात भोग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में त्याग की कल्पना और सपने कर लेते हैं। और जो लोग त्याग में डूबे रहते हैं, वे भी किन्हीं क्षणों में भोग के और भोगने के सपने देख लेते हैं। वह दूसरा विकल्प भी सदा मौजूद रहेगा। उसका वैज्ञानिक कारण है।
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द्वंद्व सदा अपने विपरीत से बंधा रहता है; उससे मुक्त नहीं हो सकता। मैं जिसके विपरीत चुनाव किया हूँ, वह भी मेरे मन में सदा मौजूद रहेगा। अगर मैंने कहा कि मैं आपको चुनता हूँ उसके विपरीत, तो जिसके विपरीत मैंने आपको चुना है, वह आपके चुनाव में सदा मेरे मन में रहेगा। आपका चुनाव आपका ही चुनाव नहीं है, किसी के विपरीत चुनाव है। वह विपरीत भी मौजूद रहेगा।
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और मन के नियम ऐसे हैं कि जो भी चीज ज्यादा देर ठहर जाए, उससे ऊब पैदा हो जाती है। तो जो मैंने चुना है, वह बहुत देर ठहरेगा मैं ऊब जाऊँगा। और ऊबकर मेरे पास एक ही विकल्प रहेगा कि उसके विपरीत पर चला जाऊँ। और मन ऐसे ही एक द्वंद्व से दूसरे द्वंद्व में भटकता रहता है। जब कृष्ण कहते हैं, समत्व, तो अगर हम ठीक से समझें, तो समत्व को वही उपलब्ध होगा, जो मन को क्षीण कर दे। क्योंकि मन तो चुनाव है। बिना चुनाव के मन एक क्षण भी नहीं रह सकता।
ओशो, गीता दर्शन

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