मंगलवार, 13 अगस्त 2024

*श्री रज्जबवाणी, उपदेश का अंग ८*

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*प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।*
*पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
देह धरैं१ तन में मन निश्चल, 
तीन प्रकार प्रकट ही पेखतु२ ।
अतिगति३ शीत सरोवर बेधत४, 
पानी पषान सो आहि५ विशेषतु६ ॥
ज्यों अश्व उभो७ रहे जटि८ चुम्बक, 
चाल रु दौड़ नहीं कछु देखतु ।
मूसो९ जु पारा पिय पग पंगुल, 
रज्जब राम रमैं लिये लेखतु१० ॥४॥
शरीर धारण१ करते हैं उनका तन मन में तीन प्रकार से निश्चल होता है, यह प्रकट रूप से ही देखा२ जाता है ।
एक तो जैसे अत्यधिक३ शीत से सरोवर विद्ध४ होता है तब पानी विशेष६ रूप से पत्थर सा होकर स्थित हो जाता है५ किंतु धूप लगने पर पुन: पानी होकर चचंल हो जाता है । वैसे ही भय से किसी पर मन स्थिर हो जाता है किंतु भय जाते ही पुन: चचंल हो जाता है ।
दूसरे जैसे चुम्बक पत्थर पर लोहे की नाल लगा धोड़े का पैर पड़ जाता है तब तत्काल पत्थर पर नाल जटित८ होकर घोड़ा खड़ा७ हो जाता है फिर घोड़े की चाल तथा दौड़ कुछ भी नहीं देखी जाती । वैसे ही विषेश आकर्षण से मन सहसा रुक जाता है ।
तीसरे चूहा९ पारा पीकर पैरों से पंगुल हो जाता है । वैसे ही मन राम भक्ति रस का पान करके आशा रूप पैरों से रहित हो जाता है और रमता राम के लिये ही सब कुछ करता१० देखा जाता है ।
(क्रमशः)

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